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मौर्योत्तर काल

(185 ई.पू. - 300 ई.)

मौर्योत्तर कालीन इतिहास के बारे में जानने हेतु साक्ष्य

साक्ष्य
पुरातात्विक साक्ष्य मौर्योत्तर कालीन सिक्के साहित्यिक साक्ष्य
रूद्रदामन का गिरनार या जूनागढ़ अभिलेख, अयोध्या अभिलेख, हाथीगुफा अभिलेख, नासिक प्रसस्ति, अमरावती अभिलेख, बेसनगर अभिलेख, कन्हेरी अभिलेख गार्गी संहिता, मालविकाग्निमित्रम, दिव्यावदान, निलिन्द पन्हो, महाभाष्य, पेरीप्लस आॅफ - इरिर्थियन सी, प्लनी, टाॅलमी, स्ट्रेबो आदि विदेशी ग्रंथ।

महत्वपूर्ण मौर्योत्तर कालीन अभिलेख

1. रूद्रदामन का गिरनार/जूनागढ़ अभिलेख

यह संस्कृत भाषा में सबसे बड़ा अभिलेख है।

रूद्रदामन की सातकर्णी पर विजय का उल्लेख।

सुदर्शन झील का इतिहास ज्ञात होता है। अभिलेख के अनुसार, झील का निर्माण चन्द्रगुप्त के समय सौराष्ट्र के गवर्नर पुष्यगुप्त ने करवाया था। तुषाष्प(अशोक के समय) ने इसमें से नहर निकाली एवं रूद्रदामन ने झील के बांध की मरम्मत करवायी थी।

इस अभिलेख से चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम चन्द्रगुप्त प्राप्त हुआ।

इस अभिलेख से सर्वप्रथम विष्णु के साथ लक्ष्मी का उल्लेख प्राप्त हुआ।

2. अयोध्या अभिलेख

पुष्यमित्र शुंग द्वारा राजधानी अयोध्या बनायी गयी।

शुंगों की यवनों पर विजय की पुष्टि।

पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराए गए 2 अश्वमेध यज्ञों की जानकारी।

3. खारवेल का हाथीगुफा अभिलेख - (प्रथम प्रशस्ति अभिलेख)

भुवनेश्वर के उदयगिरी वर्तत से प्राप्त।

खारवेल द्वारा मगध के शासक बृहस्पति मित्र को पराजित करना।

खारवेल द्वारा यवन, शातकर्णी तथा पाण्ड्य शासकों को पराजित करना।

4. नासिक प्रशस्ति - (गौतमी पुत्र सातकर्णी के विषय में)

गौतमी पुत्र सातकर्णी की मा ने उत्कीर्ण करवाया था।

इसके अनुसार, सातकर्णी(गौतमीपुत्र) ने शक,पल्लव,यवन को हराकर गुजरात, सौराष्ट्र एवं मालवा पर अधिकार किया।

इसमें गौतमी पुत्र सातकर्णी को क्षत्रियों का मर्दन करने वाला परशुराम के समकक्ष बताया गया है।

इसमें गौतमीपुत्र सातकर्णी को त्रिसमुद्रतोयपितवाहन(जिसके घोड़े ने तीन समुद्र का पानी पिया हो) कहा गया है।

5. अमरावती अभिलेख

यह सातवाहन वंश का पहला अभिलेख है।

6. नाना घाट अभिलेख

यह सातकर्णी प्रथम से संबंधित है।

इसके अनुसार, सातकर्णी प्रथम ने 2 अश्वमेध यज्ञ करवाए थे।

7. बेसनगर अभिलेख

यूनानी राजदूत हेलियोडोरस ने उत्कीर्ण करवाया था।

यह भागवत धर्म से संबंधित है एवं वासुदेव(विष्णु) को समर्पित है।

यह एक गरूड स्तंभ पर उत्कीर्ण है। इसमें काशीपुत्र भाग-भद्र शंुग शासक का उल्लेख है।

यह मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित है।

मौर्योत्तरकाल के सिक्के

इस काल में पहली बार सिक्कों पर विभिन्न राजवंश एवं शासकों के नाम लिखने की प्रथा का विकास हुआ।

सर्वप्रथम इण्डो-ग्रीक(यूनानी-हिन्द यवन) के शासकों ने ही सोने के सिक्के जारी किए।

मौर्योत्तरकालीन साहित्यिक साक्ष्य

1. गार्गी संहिता

यह एक ज्योतिष शास्त्र है। इससे यवन आक्रमण की जानकारी मिलती है।

2. मालविकाग्निमित्रम्

इस नाटक की रचना कालिदास ने की है।

कालिदास का प्रथम नाटक

अग्निमित्र की विदर्भ विजय की जानकारी।

अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने यवनों को हराया था।

3. दिव्यावदान

यह बौद्ध ग्रंथ है।

4. महाभाष्य

इसके लेखक पतंजलि हैं।

यवन आक्रमण की जानकारी मिलती है।

पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के राजपुरोहित थे।

5. पेरिप्लस आॅफ इरिथ्रियन सी

लेखक के नाम की जानकारी नहीं।

यह ग्रीक भाषा में है।

भारत एवं रोम व्यापार की विस्तृत चर्चा मिलती है।

6. प्लिनी(77 ई.)

इनकी पुस्तक नेचुरल हिस्टोरिका है।

भारत-इटली व्यापार की जानकारी।

तथ्य

भारत रोम का व्यापार इतना समृद्ध था तथा भारत का निर्यात इतना अधिक था कि प्लिनी कहता है - “भारत हर वर्ष रोम से 5500 करोड़ सिस्टर्स(रोमन मुद्रा) प्राप्त करता है।”

मौर्योत्तर कालीन राजवंश

शुंग वंश

ये वंश ब्राह्मण परिवार से सम्बद्ध था।

इसकी स्थापना पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या करके की।

दिव्यावदान ग्रंथ में पुष्यमित्र शंुग को बौद्धों का शत्रु बताया गया है।

पुष्यमित्र शुंग ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन को हराया था।

पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी

अग्निमित्र: पुष्यमित्र शुंग का पुत्र। कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् नाटक का नायक।

वसुज्येष्ठ/सुज्येष्ठ

वसुमित्र: इसने यवन शासकों को पराजित किया।

भागभद्र: इसके दरबार में हेलियोडोरस आया था जिसने विदिशा में गरूण स्तंभ स्थापित करवाया।

देवभूति: यह शुंग वंश का अंतिम शासक था। इसके मंत्री वसुदेव ने इसकी हत्या कर कण्व वंश की स्थापना की।

तथ्य

भरहुत स्तूप का निर्माण पुष्यमित्र शुंग ने करवाया था। पुष्यमित्र ने सांची स्तूप की लकड़ी की वेदिका के स्थान पर पत्थर की वेदिका का निर्माण करवाया।

कण्व वंश

इस वंश की स्थापना वसुदेव ने अंतिम शुंग शासक देवभूति की हत्या करके की।

इस वंश में केवल 4 राजा हुए -

1. वासुदेव, 2. भूमिमित्र 3. नारायण एवं 4. सुशर्मा/सुशर्मन

अंतिम शासक सुशर्मा/सुशर्मन की हत्या सिमुंक ने की एवं सातवाहन वंश की स्थापना की।

सातवाहन वंश

आरंभिक सातवाहन शासक आंध्रप्रदेश में नहीं बल्कि उत्तरी महाराष्ट्र में थे।

कारण: सातवाहनों के प्राचीनतम सिक्के एवं अधिकांश आरंभिक अभिलेख महाराष्ट्र से प्राप्त हुए हैं।

संस्थापक - इस वंश का संस्थापक सिमुक था। सिमुक ने कण्व वंश के अंतिम शासक सुशर्मा/सुशर्मन की हत्या कर सातवाहन वंश की स्थापना की थी।

राजधानी - सातवाहन शासकों की राजधानी प्रतिष्ठान थी।

सातवाहन वंश के प्रमुख शासक

सिमुक - इसने सातवाहन वंश की स्थापना की।

कृष्ण

यह सिमुक का भाई था। इसने सातवाहन साम्राज्य को नासिक तक बढ़ाया।

नासिक की गुफाओं की स्थापना की।

शातकर्णी प्रथम

इसने अनूप प्रदेश(नर्मदा घाटी) तथा विदर्भ(बरार) पर आधिपत्य स्थापित किया।

इसने अपनी राजधानी अमरावती(गुण्ट्रर, आंध्रप्रदेश) को बनाया।

इसने सर्वप्रथम दक्षिणाधिपति की उपाधिधारण की एवं दक्षिण में राज्य बढ़ाया।

इसके बारे में साक्ष्य नानाघाट अभिलेख से प्राप्त होते हैं। जिसे इसकी रानी नागानिका ने उत्कीर्ण करवाया था।

इसने ब्राह्मणों एवं बौद्धों को भूमि अनुदान में दी थी। यह भूमिदान का पहला अभिलेखीय साक्ष्य है।

इसने दो अश्वमेध यज्ञ करवाए थे।

हाल

हाल के सेनापति विजयानन्द ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की।

गौतमी पुत्र शातकर्णी

यह सातवाहन वंश का महानतम शासक था।

इसके शासन एवं उपलब्धियों के बारे में जानकारी नासिक अभिलेख से प्राप्त होती है।

नासिक अभिलेख में इसे एकमात्र ब्राह्मण या अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है।

इसने खतियदपमानमदनस की उपाधि धारण की।

नासिक अभिलेख में इसे त्रिसमुद्रतोयपितवाहन कहा गया है।

इसने शक् शासक नहपान को पराजित किया था।

उपाधियां - राजाराज, वेंकटस्वामी, विन्ध्य नरेश की उपाधियां ग्रहण की।

विशिष्ठी पुत्र पुलमावी

यह गौतमी पुत्र शातकर्णी का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।

शक शासक रूद्रदामन ने पुलमावी को 2 बार हराया था। परन्तु संबंधी होने के कारण बर्बाद नहीं किया।

पुलमावी ने दक्षिणापथेश्वर की उपाधिधारण की।

पुलमावी के समय समुद्र व्यापार एवं नौसैनिक शक्ति में पर्याप्त विकास हुआ।

यज्ञश्री शातकर्णी

यह सातवाहन वंश का अंतिम शासक था।

इसके सिक्कों पर नाव के चित्र अंकित हैं।

तथ्य

सातवाहन शासकों ने ही सर्वप्रथम सीसे के सिक्के चलाए थे।

सातवाहन राजपरिवार की महिलाएं बौद्ध धर्म को प्रश्रय देती थी एवं पुरूष वैदिक धर्म को प्रश्रय देते थे।

सातवाहन काल में महिलाएं शिक्षित थी एवं पर्दा प्रथा नहीं थी।

स्त्रियां संपत्ति में भागीदार होती थी।

समाज में अन्तर्जातीय विवाह होते थे।

सातवाहन काल के समाज का मातृसत्तात्मक होने का आभास मिलता है।

कालिंग का चेदि वंश - महामेघवाहन

इसका उदय सातवाहन शक्ति के साथ ही हुआ।

खारवेल

यह चेदि वंश का सबसे महान शासक था।

इसके शासन एवं उपलब्धियों के बारे में जानकारी हाथीगुम्फा अभिलेख(उदयगिरी) से प्राप्त होते हैं।

खारवेल ने भुवनेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।

इसने मगध के शासक बृहस्पतिमित्र पर अभियान किया एवं जैन तीर्थकर शीतलनाथ की मूर्ति को वापस कलिंग ले गया।

हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार खारवेल ने चोल, चेर एवं पाण्ड्य शासकों को पराजित किया था। इसने यवनों एवं शातकर्णी को भी पराजित किया था।

नहरों की जानकारी का पहला अभिलेखीय साक्ष्य हाथीगुम्फा अभिलेख है।

सातवाहनों के पतन के बाद उभरे राजवंश

  1. इक्वाकु(आन्ध्रप्रदेश)
  2. वाकाटक(विदर्भ)
  3. पल्लव(तमिलनाडु)

इक्वाकु वंश

ये सातवाहनों के सामन्त थे जो कृष्णा गुण्टूर क्षेत्र में शासन करते थे।

इस वंश का संस्थापक शान्तमूल था।

शान्तमूल के उत्तराधिकारी वीरपुरूषदत्त ने नागार्जुन कोण्डा स्तूप का निर्माण करवाया था।

इक्वाकु शासक बौद्ध मत के पोषक थे।

तीसरी शताब्दी के बाद इक्वाकु राज्य कांचीपुरम के पल्लवों के अधिकार में चला गया।

वाकाटक वंश

सातवाहन वंश के पतन से लेकर चालुक्यों के उदय के बीच दक्कन में सबसे शक्तिशाली एवं प्रमुख राजवंश वाकाटक था।

संस्थापक - पुराणों के अनुसार वाकाटक वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था।

राजधानी - वाकाटकों की प्रारंभिक राजधानी पुरिका(बरार) थी।

विन्ध्य शक्ति

यह वाकाटक वंश का संस्थापक, ब्राह्मण धर्म को मानने वाला।

पुराणों में इसकी तुलना इंड एवं विष्णु से की गयी है।

वाकाटक राजवंश
विन्ध्य शक्ति शाखा बेसिम शाखा
संस्थापक: विन्ध्यशक्ति संस्थापक: सर्वसेन

प्रवरसेन प्रथम

विन्ध्य शक्ति का पुत्र। वाकाटकों में सबसे प्रतापी शासक।

महाराज की उपाधि धारण की। 4 अश्वमेधयज्ञ करवाए।

इसके शासन में वाकाटकों का राज्य बुन्देलखण्ड से हैदराबाद तक हो गया।

पृथ्वीसेन प्रथम

गुप्त साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने के लिए पुत्र रूद्रसेन-2 का विवाह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त से किया था।

प्रवरसेन द्वितीय/दामोदर सेन

इसने वाकाटकों की राजधानी प्रवरपुर में स्थापित की।

इसने सेतुबंध नामक काव्य की रचना की।

अपने राज्य की स्थिति मजबूत करने के लिए अपने पुत्र नरेन्द्र का विवाह कुन्तल नरेश की पुत्री से किया।

पृथ्वीसेन द्वितीय

यह विन्ध्यशक्ति शाखा का अंतिम शासक था।

हरिषेण

इसके बाद वाकाटाकों का इतिहास समाप्त हो गया।

मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रमण

विदेशी आक्रमणकारियों का क्रम

यवन(हिन्द-यूनानी)/इंडो-ग्रीक - पार्थियन(पहलव) - कुषाण

हिन्द-यवन/इंडो ग्रीक

मौर्योत्तर काल की सबसे प्रमुख राजनीतिक घटना भारत पर यूनानी आक्रमण थी।

बैक्ट्रिया के यवनों द्वारा भारत पर आक्रमण के मुख्य कारण

सेल्युकस द्वारा स्थापित साम्राज्य की कमजोरी

शकों का बढ़ता प्रभाव

डियोडोट्स-2 द्वारा अपने राज्य को सेल्युकस साम्राज्य से अलग कर लेना।

बैट्रिया शासकों का भारत पर आक्रमण

भारत पर आक्रमण करने वाला सबसे पहला यवन(ग्रीक) आक्रमणकारी डेमेट्रियस प्रथम था।

बैट्रिया में विद्रोह होने के कारण नए क्षेत्र की चाह में यूकेटाइड्स ने भारत पर आक्रमण कर दिया। अतः भारत में दो कुलों का शासन स्थापित हुआ।

बैक्ट्रिया के यवन
डेमेट्रियस वंश यूक्रेटाइड्स वंश
संस्थापक: डेमेट्रियस प्रथम यूक्रेटाइड्स
राजधानी: साकल(श्यालकोट) तक्षशिल
प्रतापी शासक: मिनांडर(मिलिन्द) एण्टियाल कीड्स

मिनांडर(मिलिन्द)

यह मिलिन्द के नाम से जाना जाता था।

इसने गंगा यमूना के दोआब पर आक्रमण किया।

इसने भारत में सिकन्दर से भी बड़े क्षेत्र को जीता था।

बौद्ध भिक्षु नागसेन से प्रभावित होकर इसने बौद्ध धर्म अपनाया।

मिलिन्दपन्हो ग्रंथ - इसमें मिलिन्द एवं नागसेन के मध्य हुए वार्तालाप को संकलित किया गया है।

एण्टियाल कीड्स

यह यूक्रेटाइड्स वंश से था।

इसने शुंग शासक भागभद्र के विदिशा दरबार में एक राजदूत हेलियोडोरस को भेजा था। हेलियोडोरस ने भागवत् धर्म ग्रहण किया एवं विदिशा में गरूण स्तंभ की स्थापना की।

यूनानी संपर्क का महत्व

राजत्व का दैवीय सिद्धांत

सांचों से सिक्का निर्माण पद्धति

मुद्राओं पर जाता का नाम, चित्र एवं तिथि अंकित करना।

काल गणना, भारतीय कलैण्डर, सप्ताह का सात दिनों में विभाजन, संवत का प्रयोग यूनानियों से सिखा है।

12 राशियां एवं ज्योतिष विद्या यूनानियों की देन है।

नाटकों में प्रयुक्त होने वाला पर्दा “यवनिका” यूनानियों की देन है।

भारत में सोने के सिक्के चलाने का श्रेय यूनानियों/इण्डोग्रीक को है।

स्थापत्य की गांधार शैली यूनानी कला एवं भारतीय कला का मिश्रण है।

शक आक्रमण

यूनानियों के बाद एशिया के शकों ने भारत पर आक्रमण किया।

भारत में शकों की कुल 5 शाखाएं थी -

1. अफगानिस्तान(महाभारत से बाहर बस गयी थी) 2. पंजाब शाखा 3. मथुरा शाखा 4. महाराष्ट्र या नासिक शाखा 5. मालवा शाखा।

पंजाब शाखा

राजधानी - तक्षशिला

इस शाखा के शासक एजेलिसेज के सिक्कों पर भारतीय देवी लक्ष्मी अंकित।

मथुरा शाखा

ये मालवा से राजा विक्रमादित्य द्वारा भगाए गए शक थे।

मथुरा शाखा का प्रथम शासक राजुल था।

महाराष्ट्र शाखा

इस शाखा का सबसे प्रसिद्ध शासक नहपान था।

नहपान ने सातवाहनों से महाराष्ट्र में एक बड़ा भू-भाग छीना था।

नहपान को गौतमीपुत्र शातकर्णी ने पराजित किया था।

मालवा शाखा

मालवा शाखा में रूद्रदामन सबसे प्रमुख शासक था।

रूद्रदामन के विषय में जानकारी संस्कृत भाषा के जूनागढ़ अभिलेख से प्राप्त होती है।

मालवा के अंतिम शक शासक रूद्रसिंह-3 को गुप्त शासक चन्द्रगुप्त विक्र्रमादित्य ने मारकर भगाया था। इसी के उपलक्ष में विक्रम संवत् की शुरूआत हुई एवं व्याघ्र शैली के चांदी के सिक्के चलाए गए थ।

पार्थियन(पह्लन वंश)

पार्थियन मध्य एशिया में ईरान से आए थे। पार्थियन साम्राज्य का संस्थापक मिथ्रोडेट्स-1 था। भारत में पार्थियन साम्राज्य का प्रथम शासक माओ/मायो माउस था। परन्तु वास्तविक संस्थापक मिथ्रोडेट्स-1 था।

कुषाण वंश

कुषाण मध्य एशिया के यूची जाती के लोग थे।

भारत पर सर्वप्रथम आक्रमण करने वाला कुषाण शासक कुजुल फडफिसस था।

विम फडफिसस

यह कुषाण शक्त् िका वास्तविक संस्थापक था। इसने तक्षशिला एवं पंजाब पर अधिकार कर लिया था।

इसके सिक्कों पर एक ओर यूनानी लिपि एवं दुसरी ओर खरोष्ठी लिपि।

इसके सिक्कों पर शिव, नंदी बैल एवं त्रिशूल की आकृति अंकित थी।

कनिष्क

कनिष्क सर्वाधिक प्रसिद्ध कुषाण शासक था।

कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि 78ई. है इसी उपलक्ष्य में कनिष्क द्वारा शक संवत् का आरंभ हुआ।

कनिष्क के समय कश्मीर के कुण्डलवन में चौथी बौद्ध संगीति हुई थी।

इसी के समय बौद्ध धर्म हीनयान एवं महायान शाखा में बंट गया था।

कनिष्क के समय में मथुरा कला एवं गांधार कला का जन्म हुआ।

कनिष्क की राजधानी पुरूषपुर(पेशावर) थी।

कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था।

कनिष्क ने चीन एवं रोमन के बीच सिल्क रूट की तीनों शाखाओं पर नियंत्रण किया हुआ था।

कनिष्क के दरबार के विद्वान

पाश्र्व, वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन एवं चरक।

कनिष्क के उत्तराधिकारी -

वासिष्क - हुविष्क एवं वासुदेव(कनिष्क काल का अंतिम शासक)

मौर्योत्तर कालीन प्रशासन

शक शासक त्रातार(मुक्तिदाता) की उपाधि धारण करते थे।

शकों एवं कुषाणों ने राजत्व को देवत्व से जोड़ने पर बल दिया। इसके अनुसार राजा को देवताओं का अवतार कहा जाने लगा। इसी कारण शक शासकों ने स्वंय को त्रातार एवं कुषाण शासक स्वंय को देव पुत्र कहने लगे।

इस काल में प्रान्तों में द्वैध शासन की शुरूआत हुई।

मौर्य काल का पूर्ण केन्द्रीकरण अब विकेन्द्रीकरण में बदलने लगा।

कुषाण राजाओं ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।

मौयोत्तर कालीन अर्थव्यवस्था

मौर्योत्तर काल को आर्थिक दृष्टि से प्राचीन भारत का स्वर्णकाल माना जाता है। शिल्प, वाणिज्य, अन्तर्देशीय व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि।

वाणिज्य में उन्नति के कारण

नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में नए वर्गो का उदय।

रोम एवं चीन के साथ व्यापारिक संबंधों का विकास।

रेशम मार्ग की खोज एवं नियंत्रण।

दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक जुडाव।

शिल्पियों का विभेदीकरण।

मौर्योत्तर काल का प्रमुख उद्योग वस्त्र उद्योग था।

लोहा एवं इस्पात उद्योग में भारी वृद्धि। आंध्र प्रदेश में करीमनगर एवं नालकोण्डा लोहा एवं इस्पात के प्रमुख केन्द्र थे।

रोमवासी मुख्यतः मसाले का आयात करते थे काली मिर्च को यवनप्रिय कहा जाता था।

भडौच के बन्दरगाह से मित्र एवं अरब के घोड़े तथा सुन्दर लड़कियां लायी जाती थी।

मौर्योत्तर कालीन बन्दरगाह

सोपारा(पश्चिमी तट), भडौच(गुजरात), देवल(सिन्धु), नागपत्तनम(तमिल तट), मूसली पत्तनम, मुजरिस आदि।

मौर्योत्तर कालीन सिक्के

  1. सोने के सिक्के - निष्क, दीनार, सुवर्ण, पल, कर्षापण
  2. चांदी के सिक्के - शतमान, कर्षापण
  3. तांबे के सिक्के - काकणी, कर्षापण।
  4. सिक्के बनाने में - सोने, चांदी, तांबा, सीसा का प्रचलन था।

भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के हिन्द-यवन शासकों ने चलाए।

भारत में सबसे शुद्ध सोने के सिक्के कुषाण शासकों ने चलाए।

सर्वाधिक तांबे के सिक्के कुषाणों ने चलाए।

भारत में सीसे के सिक्के सर्वप्रथम सातवाहन शासकों ने चलाए।

मौर्योत्तर कालीन समाज

इस काल में समाज को प्रभावित करने वाले दो महत्वपूर्ण काम हुए -

1. भारतीय समाज में बड़ी संख्या में जनजातियों को मिलाया गया।

2. इस काल में विदेशिओं का भी आत्मसातीकरण हुआ।

प्राचीन भारत में विदेशिओं का सर्वाधिक आत्मसातीरण इसी काल में हुआ।

जनजातियों एवं विदेशिओं के मिलने से समाज में वर्णशंकरों की संख्या में वृद्धि हुई।

इस काल में शूद्रों की सामाजिक स्थिति में सुधार आया।

महिलाओं की दशा

महिलाओं को पुरूषों के अधीन कर दिया गया।

विधवा विवाह पर पाबन्दी लगा दी गयी।

बाल विवाह को प्रोत्साहन दिया गया।

क्षेत्रज - नियोग प्रथा से उत्पन्न संतान।

जारज - अनैतिक संबंधों से जन्मी संतान।

तथ्य

कुषाणों ने केवल तांबे एवं सोने के सिक्के चलाए थे चांदी के नहीं।

कुषाणों की राजभाषा संस्कृत थी।

मथुरा “साल्क” नामक कपड़े के लिए प्रसिद्ध था।

इस काल में अनुलोम(उच्च वर्ण का पुरूष, निम्न वर्ण की स्त्री) विवाह को अनुमति प्राप्त थी।

धार्मिक स्थिति

बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रथाव कम हुआ वैष्णव एवं शैव सम्प्रदाय की मान्यता में वृद्धि हुई।

बौद्ध धर्म के प्रभाव पर प्रतिकूल कारक

मौर्यो के बाद बौद्ध धर्म को राजकीय प्रश्रय नहीं मिला।

शुंग एवं कण्व वंश बौद्ध धर्म के विरूद्ध रहा।

बौद्ध धर्म का दो शाखाओं में विभाजन।

अन्य सम्प्रदायों को राजकीय प्रश्रय मिलने लगा था।

बौद्ध धर्म आडम्बर पूर्ण हो गया था तथा बोद्ध विहार विलासिता एवं संभोग के केन्द्र बनने लगे थे।

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