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मेवाड़ का गुहिल वंश

उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़ एवं प्रतापगढ़ तथा इनके आस-पास का क्षेत्र मेवाड़ कहलाता था। प्राचीन काल में इसका नाम शिवि, प्राग्वाट, मेद्पाट आदि था। इस क्षेत्र पर पहले मेर अथवा मेद् जाति का अधिकार होने के कारण इसका नाम मेद्पाट पड़ा। रावल समरसिंह की चित्तौड़ प्रशस्ति से गुहिल वंश की अनेक शाखाओं का बोध होता है।

गुहिलों की उत्पत्ति

अबुल फजल मेवाड़ के गुहिलों को ईरान के बादशाह नौशेरवां आदिल की सन्तान होना मानते हैं। डी. आर. भण्डारकर मेवाड़ के गुहिलों को ब्राह्मण वंश से मानते हैं। डॉ. गोपीनाथ शर्मा भी यह मानते हैं। मुँहणौत नैणसी इन्हें आदिरूप में ब्राह्मण एवं जानकारी से क्षत्रिय मानते हैं। डॉ. गोरीशंकर हीराचन्द ओझा इन्हें सूर्यवंशी मानते हैं। कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूतों को विदेशियों की सन्तान मानने के पक्ष की पुष्टि में फारसी तवारीखों के वर्णन को ठीक माना और जैन ग्रंथों के आधार पर यह धारणा बनायी कि गुजरात में वल्लभी के शासक शिलादित्य के समय विदेशियों ने वल्लभी पर 524 ई. में आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। उस समय शिलादित्य की रानी पुष्पावती जो गर्भवती थी, अम्बा भवानी (सिरोही) की यात्रा पर गई हुई थी, ही बच पायी। उसी ने एक गुफा में एक बच्चे को जन्म दिया जो आगे चलकर मेवाड़ का स्वामी बना। गुफा में पैदा होने के कारण वह गोह, गुहिल, गुहदर कहलाया। इसी कुह/गोह ने मेवाड़ में गुहिल वंश की नीव रखी।

गुहिल के उत्तराधिकारियों के बारे में हमारे पास कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। किन्तु सर्वाधिक मान्यता इस बात की है कि मेवाड़ में हारित ऋषि के शिल्प और ग्वाले कालभोज (बप्पा रावल) ने हारित ऋषि के आशीर्वाद से गुहिल साम्राज्य की नींव रखी थी।

मेवाड़ में गुहिल वंश का संस्थापक - गुह

मेवाड़ के गुहिल साम्राज्य का संस्थापक - बप्पा रावल (728-753 ई.)

बप्पा रावल

कर्नल टॉड के अनुसार ईडर के गुहिलवंशी राजा नागादित्य की हत्या के बाद उनके सहयोगी बप्पा को जंगलों में ले गये। जहां बापा ब्राह्मणों की गायें चराने लगे।

ऐसी मान्यता है कि बापा रावल हारीत ऋषि की गायें चराते थे। हारीत ऋषि की अनुकम्पा से ही बापा रावल ने मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया था। बापा रावल ने 734 ई. में मौर्य शासक मान मोरी को पराजित कर सत्ता स्थापित की। कविराजा श्यामलदास ने ‘वीर विनोद’ में बापा द्वारा मौर्यों से चित्तौड़ दुर्ग छीनने का समय 734 ई. बताया है।

बप्पा ने चित्तौड़ पर अधिकार कर तीन उपाधियाँ ‘हिन्दू सूर्य’, ‘राजगुरु’ और ‘चक्कवै’ धारण की।

इस समय गुहिलों की राजधानी नागदा थी।

बप्पा के समय के तांबे एवं स्वर्ण धातु के सिक्के मिले हैं जिनमें स्वर्ण सिक्का 119 ग्रेन का है। इन पर कामधेनु, शिवलिंग, बछड़ा, नन्दी, दण्डवत करता हुआ पुरुष, त्रिशूल, चमर आदि का अंकन हुआ है।

बापा रावल हारीत ऋषि का शिष्य एवं पाशुपत संप्रदाय का अनुयायी था। अतः उसने पाशुपत एकलिंगजी को अपना आराध्यदेव माना एवं कैलाशपुरी (उदयपुर) में एकलिंगजी का मंदिर बनवाया।

बप्पा ने एकलिंगजी को मेवाड़ का राजा घोषित किया तथा अपने आपको उसका दीवान। जब से लेकर आज तक मेवाड़ के महाराणा अपने आपको एकलिंगजी का दीवान ही मानते हैं।

बप्पा का देहान्त नागदा में हुआ था। बापा का समाधि स्थल एकलिंगजी (कैलाशपुरी) से एक मील दूरी पर अभी भी मौजूद है जो ‘बापा रावल’ के नाम से प्रसिद्ध है। बप्पा के ठिकाने के कारण पाकिस्तान के शहर का नाम रावलपिंडी पड़ा।

बप्पारावल व कालभोज से सम्बधिंत तथ्य-

इतिहासकार सी. बी. वैद्य ने उसकी तुलना ‘चार्ल्स मार्टेल’ (मुगल सेनाओं को सर्वप्रथम पराजित करने वाला फ्रांसीसी सेनापति) के साथ करते हुए कहा है कि उसकी शौर्य की चट्टान के सामने अरब आक्रमण का ज्वार भाटा टकराकर चूर-चूर हो गया। डॉ. रामप्रसाद के अनुसार बप्पारावल किसी का नाम नहीं उपाधि है।

वीर विनोद में श्यामल दास के अनुसार बप्पा एक उपाधि है।

नैणसी व टॉड के अनुसार बप्पारावल का मूल नाम कालभोज था। हरित ऋषि ने इसे बप्पारावल की उपाधि दी थी।

रणकपुर प्रशस्ति मे बप्पा रावल व कालभोज को अलग-अलग बताया है।

बप्पा रावल के वंशज अल्लट (आलु-रावल) ने हुण राजकुमारी हरियादेवी से विवाह किया। आहड़ उस समय एक समृद्ध नगर तथा एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। अल्लट ने आहड़ को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। उससे पूर्व गुहिल वंश की राजधानी नागदा थी। एक मान्यतानुसार अल्लट ने मेवाड़ में सबसे पहले नौकरशाही का गठन किया। अल्हट ने आहड़ में वराह मंदिर का निर्माण करवाया।

गुहिलों में कालान्तर में ‘विक्रमसिंह’ का पुत्र ‘रणसिंह’ (कर्णसिंह) मेवाड़ का शासक बना। रणसिंह के दो पुत्र थे क्षेमसिंह(रावल शाखा) एवं राहप (सिसोदिया शाखा)। क्षेमसिंह ने मेवाड़ की रावल शाखा को जन्म दिया तथा राहप ने सीसोदा ग्राम की स्थापना कर राणा शाखा (सिसोदिया वंश) की नींव डाली। रावल शाखा वाले मेवाड़ के शासक रहे जिनका अन्त अलाउद्‌दीन खिलजी की चित्तौड़ विजय से हुआ और तब से राणा शाखा वाले, जो सीसोदा के जागीरदार थे, मेवाड़ के शासक बनते गए जो सिसोदिया कहलाए। क्षेमसिंह के दो पुत्र सामंतसिंह और कुमारसिंह हुए। सामंतसिंह से कीतू चौहान (कीर्तिपाल) ने मेवाड़ छीन लिया। बाद में कुमारसिंह ने मेवाड़ कीर्तिपाल से पुनः छीन लिया।

जैत्रसिंह (1213-1253 ई.)

कुमारसिंह का वंशज जैत्रसिंह (1213-1253 ई.) बड़ा प्रतापी शासक हुआ। जैत्र सिंह ने अपने पूर्वजों के अपमान का बदला लेने के लिए सोनगरा चौहान उदयसिंह पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह ने युद्ध में पराजय देखकर अपनी पुत्री रूपादेवी/चचिकदेवी का विवाह जैत्र सिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ करवाकर संधि कर ली।

जैत्रसिंह के समय दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश का नागदा पर आक्रमण हुआ। संम्भवतः इल्तुतमिश ने 1222 ई. से 1229 के मध्य मेवाड़ पर आक्रमण किया। जयसिंह सुरि के हम्मीर मद मर्दन के अनुसार जैत्रसिंह ने इल्तुतमिश को परास्त कर पीछे धकेल दिया (आबु व चीरवा शिलालेख के अनुसार)। लेकिन घमासान समय युद्ध के कारण नागदा को भारी क्षति पहुंची। इसीलिए जैत्रसिंह में अपनी राजधानी नागदा से चित्तौड़ स्थानांतरित की। कर्नल टॉड ने 1231 ई. में इल्तुतमिश की सेना को नागौर के पास युद्ध में परास्त करना बताया है। जैत्रसिंह के अन्तिम काल के लगभग 1248 में दिल्ली के सुल्तान नासिरूद्‌दीन महमूद ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का कारण फरिश्ता के अनुसार यह था कि सुलतान ने अपने भाई जलालुद्दीन को कन्नौज से दिल्ली बुलाया। परंतु जलालुद्दीन अपने प्राणों के भय के कारण चित्तौड़ के आपस-पास जा छिपा गया। सुल्तान नासिरुद्‌दीन उसको पकड़ने में सफल नहीं हो पाया तो पुनः दिल्ली लौट गया।

डॉ. गौरीशंकर हीराचंद औझा ने सिंह की प्रशंसा में लिखा है कि ‘दिल्ली के गुलाम सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और वान राजा जैत्रसिंह ही हुआ, जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके विपक्षियों ने भी की है।

डा. दशरथ शर्मा ने जैत्रसिंह के शासक काल को मध्यकालीन मेवाड़ का स्वर्णकाल और मेवाड़ की नवशक्ति का संचारक कहा।

तेजसिंह (1253-1273 ई.)

रावल जैत्रसिंह के बाद रावल तेजसिंह (1253-1273 ई.) मेवाड़ का शासक बना। उसने ‘परमभ‌ट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’ और ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की जो उसे प्रतिभा सम्पन्न साबित करती हैं। तेजसिंह के समय में दिल्ली के सुल्तान गयासु‌द्दीन बलबन का मेवाड़ पर आक्रमण हुआ परन्तु इसमें उसको सफलता न मिली। तेजसिंट की रानी जयतल्लदेवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। तेजसिंह के समय में ‘श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि’ लिखा जाना उसके काल की कला और साहित्यिक उन्नति का प्रमाण है।

तेजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ‘समरसिंह (1273-1302 ई.)’ मेवाड़ का शासक बना जिसने तुर्कों को गुजरात से निकालकर गुजरात का उद्धार किया।

रावल समरसिंह के दो पुत्र रतनसिंह एवं कुंभकर्ण थे। रावल रतनसिंह मेवाड़ का शासक बना तथा कुंभकर्ण ने नेपाल में शाही वंश की स्थापना की।

रावल रतनसिंह (1302 1303 ई.)

रावल समरसिंह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र रतनसिंह 1302 ई. के लगभग चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा। रावल रतन सिंह रावल शाखा के अंतिम राजा थे। रतन सिंह के समय की प्रमुख घटना दिल्ली सुल्तान अलाउ‌द्दीन खिलजी का मेवाड़ आक्रमण एवं उसकी विजय है।

चित्तौड़ का युद्ध : चित्तौड़ का युद्ध मेवाड़ के शासक रावल रतनसिंह (1302-03 ई.) एवं दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316 ई.) के मध्य 1303 ई. में हुआ था। चित्तौड़ दुर्ग का सामरिक, व्यापारिक एवं भौगोलिक महत्त्व था। मालवा, गुजरात तथा दक्षिण दक्षिण भारत जाने वाले मुख्य मार्ग चित्तौड़ से होकर गुजरते थे, अतः गुजरात और दक्षिण भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने तथा यहाँ के व्यापार पर अधिकतर करने को लिए चित्तौड़ विजय जरूरी थी।

28 जनवरी 1303 को अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए दिल्ली से रवाना हुआ। लेखक अमीर खुसरो ने लिखा है कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी सेना का शाही शिविर गंभीरी और बेड़च नदियों के मध्य लगाया जो की चित्तौड़गढ़ किले के पास है। अलाउद्दीन खिलजी ने अपना स्वयं का शिविर चितौड़ी नामक पहाड़ी पर लगाया था, वहीं से अलाउद्दीन रोज चित्तौड़ के किले के घेरे के संबंध में निर्देश देता था।

8 माह के बाद किले के द्वारा खोले गए क्योंकि रसद सामग्री की कमी होने लगी। रतन सिंह के सेनापति गोरा और बादल के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने केसरिया वस्त्र धारण कर चित्तौड़ दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु पर टूट पड़े और वीरगति को प्राप्त हुए, गोरा रानी पद्मिनी का चाचा तो बादल रानी पद्मिनी का भाई था। महल के अंदर 1600 स्त्रियों ने रानी पद्मिनी के नेतृत्व में जौहर किया जो चित्तौड़ का प्रथम साका था। 26 अगस्त, 1303 ई. को सोमवार के दिन 6 महीने व 7 दिन की लड़ाई के बाद रावल रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुए और अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग फतह कर कत्लेआम का हुक्म दिया।। अलाउद्दीन खिलजी कुछ दिनों तक चित्तौड़ में रुककर अपने पुत्र खिज्र खां को चित्तौड़ का शासन सौंपकर दिल्ली लौट गया तथा उसने चित्तौड़ का नाम बदलकर खिज्राबाद रख दिया। खिज्र खां ने आसपास के भवनों को तुड़वाकर किले पर पहुंचने के लिए गंभीरी नदी पर पुल बनवा दिया इस पुल में शिलालेख भी चुनवा दिए जो मेवाड़ इतिहास के लिए बड़े प्रमाणिक हैं। चित्तौड़ की तलहटी के बाहर एक मकबरा भी बनवाया गया जिसमें लगे हुए 1310 ई. के फारसी लेख में बताया गया है कि अलाउद्दीन खिलजी उस समय का सूर्य, ईश्वर की छाया और संसार का रक्षक था।

1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद खिज्र खां चित्तौड़ का कार्यभार मालदेव चौहान (सोनगरा) को सौंप कर दिल्ली चला गया।

मलिक मोहम्मद जायसी ने ‘पद्‌मावत’ में अलाउ‌द्दीन के चित्तौड़ आक्रमण का कारण रावल रतनसिंह की सुन्दर पत्नी पद्‌मिती को प्राप्त करने की लालसा बताया है। इतिहासकार दशरथ शर्मा ने भी इस कारण को मान्यता दी है। यह बात एक काल्पनिक लगती है क्योंकी मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत ग्रंथ को 1540 में शेरशाह सूरी के समय में लिखी जबकि रावल रतन सिंह, रानी पद्मिनी और अलाउद्दीन खिलजी की यह घटना 1303 की है।

राणा हम्मीर (1326-1364 ई.)

रतनसिंह के चित्तौड़ के घेरे के समय काम आने से समूची रावल शाखा की भी समाप्ति हो गयी।

गौरीशंकर हिराचंद औझा के अनुसार मालदेव सोनगरा चौहान के पुत्र जयसिंह/जैसा चौहान को पराजित कर सीसोदा शाखा के राणा अरिसिंह के पुत्र राणा हमीर ने चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया।

रणकपुर प्रशस्ति के अनुसार मालदेव चौहान के पुत्र बनवीर चौहान को पराजित कर राणा हमीर ने चित्तौड़गढ़ पर अधिकार कर लिया।

तब से मेवाड़ के शासक महाराणा/राणा तथा वंश सिसोदिया कहलाने लगा।

कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति (चित्तौड़गढ़) में हमीर सिसोदिया को विषम घाटी पंचानन कहा गया है।

कर्नल जेम्स टाॅड ने ने हमीर सिसोदिया को उस समय का प्रबल हिन्दू शासक बताया है।

रसिकप्रिया की टीका (महाराणा कुम्भा) में हमीर को वीर राजा की संज्ञा दी गई है।

राणा हमीर ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में अन्नपूर्णा माता के मंदिर का निर्माण करवाया। (मोकलजी का शिलालेख)

दिल्ली के मुहम्मब बिन तुगलक ने राणा हमीर के समय मेवाड़ पर आक्रमण किया। यह युद्ध सिंगोली (बांसवाड़ा) का युद्ध कहलाता है।

1364 ई. में राणा हम्मीर की मृत्य के बाद इनके पुत्र क्षेत्रसिंह/महाराणा खेता मेवाड़ के अगले शासक बने।

राणा क्षेत्रसिंह (1364 1382 ई.)

राणा क्षेत्रसिंह ने अजमेर, जहाजपुर, माण्डल और छप्पन को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। क्षेत्रसिंह ने मालवा के दिलावर खाँ गोरी को परास्त कर भविष्य में होने वाले मालवा-मेवाड़ के संघर्ष के सूत्र को आरम्भ किया। 1382 ई. में क्षेत्रसिंह की बूंदी (हाड़ौती) के लालसिंह हाड़ा से युद्ध करते हुए मृत्यु हो गई। इस युद्ध में लालसिंह हाड़ा की भी मृत्यु हो गई। महाराणा क्षेत्र सिंह की खातिन जाती की एक दासी थी जिससे महाराणा क्षेत्र सिंह को दो पुत्र हुए थे जिनका नाम चाचा व मेरा था। चाचा व मेरा ने कालांतर में क्षेत्र सिंह के पौत्र महाराणा मोकल की हत्या कर दी थी।

राणा लाखा या राणा लक्षसिंह (1382-1421 ई.)

राणा लाखा ने बदनौर प्रदेश को अपने अधीन कर लिया। संस्कृत साहित्य के विद्वान झोटिंग भट्ट और बनेश्वर भट्ट राणा लाखा के दरबारी थे। राणा लाखा के समय में जावर माइन्स से चांदी और सीसा बहुत अधिक मात्रा में निकलने लगा जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी। इनके समय में ही पिच्छु बनजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया।

एक दिन जब महाराणा लाखा अपने दरबार में बैठे हुए थे कि राठौड़ रणमल की बहन हंसाबाई के संबंध में नारियल महाराणा के कुँवर चूँडा के लिए आये। उस समय चूँडा उपस्थित न थे। महाराणा ने हँसी में कह दिया कि नारियल अब बूढ़ों के लिए कौन लाये? रणमल ने यह सुनकर कहलवा भेजा कि यदि हंसाबाई से होने वाले पुत्र का मेवाड़ की गद्दी पर अधिकार स्वीकार किया जाए तो उसका विवाह लाखा से कर दिया जाएगा। अब राणा बड़े असमंजस में पड़े। चूँडा के ज्येष्ठ पुत्र होते हुए ऐसा करना उचित न था। चूँडा ने जब यह स्थित देखी तो उसने प्रत्युत्तर में रणमल को कहलवा भेजा कि वह राज्य का अधिकार छोड़ने के लिए उद्यत है यदि राणा से हंसाबाई का विवाह सम्पन्न हो जाए। महाराणा ने हंसाबाई से विवाह किया जिससे मोकल नामक पुत्र हुआ। राणा लाखा के बड़े पुत्र चूँडा ने यह प्रतिज्ञा ली कि ‘मेवाड़ के सिंहासन पर उसका या उसके उत्तराधिकारी का कोई अधिकार नहीं होगा, बल्कि राजकुमारी हंसाबाई से उत्पन्न होने वाली संतान का होगा।’ हंसाबाई ने मोकल को जन्म दिया और वह मेवाड़ का राणा बना न कि चूँडा। इसलिए राजस्थान के इतिहास में राजकुमार चूँडा को न कि राव चूँडा को ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह’ कहा जाता है। चूँडा के त्याग से प्रसन्न होकर लाखा ने चूँडा को मोकल का रक्षक नियुक्त किया और यह नियम कर दिया कि भविष्य में मेवाड़ के महाराणाओं के सभी पट्टों, परवानों और सनदों पर चूँडा और उसके वंशाजों के भाले का निशान अंकित होता रहेगा।

राणा मोकल (1421-1433 ई.)

महाराणा लाखा के देहान्त के समय मोकल लगभग 12 वर्ष का था जिसके कारण राज्य का सभी कार्य बड़ी कुशलता से उसका भाई चूँडा चलाता रहा। महत्वाकांक्षी रणमल राठौड़ ने मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए हंसाबाई को चूँडा के विरुद्ध भड़काया जिससे हंसाबाई को धीरे-धीरे व्यर्थ में ही चूँडा पर सन्देह होने लगा। जब इस मनोवृत्ति का आभास स्वाभिमानी चूँडा को हुआ तो वह माण्डू के होशंगशाह के दरबार में पहुँच गया और अपने भाई राघवदेव को मेवाड़ की रक्षा के लिए छोड़ गया।

रानी ने शीघ्र ही मारवाड़ से अपने भाई रणमल को बुला लिया और उसे राज्य का भार सुपुर्द कर दिया। रणमल राठौड़ ने धीरे धीरे मेवाड़ के राजकार्य में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। रणमल मेवाड़ की सत्ता पर कब्जा करने लगा। मेवाड़ राज्य के उच्च पदों पर सिसोदिया सरदारों को हटाकर मारवाड़ के राठौड़ सरदारों की नियुक्ति कर दी। एक दिन रणमल राठौड़ ने आवेश में आकर चुंडा के भाई मेवाड़ सरदार राघवदेव जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या कर दी। इससे सिसोदिया सरदार रणमल राठौड़ से नाराज होने लगे।

1423 ई. में मारवाड़ के राव चूड़ा ने अपने बड़े पुत्र रणमल राठौड़ को शासक न बनाकर अपने छोटे पुत्र राव कान्हा को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। 1427 ई. में राव कान्हा की मृत्यु के बाद रणमल राठौड़ मेवाड़ की सेना की सहायता से मारवाड़ पर आक्रमण कर मारवाड़ (मंडोर) का शासक बन गया।

रामपुरा का युद्ध : 1428 ई. में महाराणा मोकल ने नागौर के शासक फिरोज खां को रामपुरा के युद्ध में हराया। इस युद्ध में फिरोज खां की सहायता करने गुजरात की सेना (अहमद शाह) भी आई। फिरोज खां के साथ-साथ गुजरात की सेना को भी हार झेलनी पड़ी।

महाराणा मोकल ने 1428 ई. में समिधेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। समिधेश्वर मंदिर का निर्माण परमार वंशीय राजा भोज द्वारा करवाया गया। महाराणा मोकल द्वारा समिधेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाने के कारण इस मंदिर को मोकल मंदिर कहते हैं। मोकल मंदिर/समिधेश्वर मंदिर चितौड़गढ़ के दुर्ग में स्थित है।

महाराणा मोकल ने चितौड़गढ़ दुर्ग में स्थित एकलिंग मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।

महाराणा मोकल के दरबार में मना, फना व विसल जैसे शिल्पी तथा योगेश्वर व भट्ट विष्णु जैसे विद्वान थे।

1433 ई. में अहमद शाह मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए गुजरात से रवाना हुआ। महाराणा मोकल जीलवाड़ा नामक स्थान पर आक्रमण को रोकन गये हुए थे। वहीं पर महपा पंवार के कहने पर चाचा और मेरा ने अवसर पाकर मोकल की हत्या कर दी।

महाराणा मोकल की हत्या का कारण : एक बार महाराणा मोकल के साथ चाचा और मेरा भी जंगल में गए हुए थे। तब मोकल ने चाचा और मेरा से मजाक – मजाक में किसी वृक्ष का नाम पूछ लिया। इस बात को चाचा और मेरा ने ताना समझ लिया। क्योंकि इन दोनों की मां एक खातीन थी। चाचा और मेरा मोकल से इस बात का बदला लेना चाहते थे। इसी कारण चाचा और मेरा ने महपा पंवार के साथ मिलकर मोकल की हत्या कर दी।

राणा कुंभा (1433-1468 ई.)

महाराणा कुंभा, महाराणा मोकल एवं सौभाग्य देवी के ज्येष्ठ पुत्र थे। 1433 ई. में महाराणा मोकल की मृत्यु के बाद मात्र 10 वर्ष की आयु में कुंभा मेवाड़ के शासक बने।

राणा कुंभा की प्रारंभिक समस्याएं और उनका अंत : महाराणा कुंभा ने गुप्त नीति से भीलो को अपनी और संगठित किया और रणमल और राघवदेव क़ी सहायता से विद्रोहियों का दमन किया। महाराणा कुंभा ने चाचा व मेरा कि हत्या करवा दी उसके बाद चाचा के पुत्र एचका व महपा पंवार क़ी मेवाड़ में रहने क़ी हिम्मत नहीं हो सकी और वे मांडू के सुल्तान की शरण में चले गए थे। अब उसके सामने दूसरी समस्या रणमल राठौड़ की थी। 1438 ई. में राणा कुंभा ने रणमल की प्रेमिका भारमली के सहयोग से रणमल की हत्या कर करवा दी थी तब जोधा राठौड़ ने काहुनि गांव में जाकर शरण ली थी। लेकिन महाराणा कुम्भा ने राव जोधा को मण्डोर से भी खदेड़ दिया, तो राव जोधा सीधा अपनी बुआ हँसाबाई के पास पहुँचा।

आवल-बावल की संधि 1453 ई. : महाराणा कुम्भाराव जोधा के मध्य कुम्भा की दादी व राव जोधा की बुआ हंसाबाई ने मध्यस्थता करते हुए दोनों के मध्य 1453 ई. में सोजत (पाली) में ‘आवल-बावल’ की संधि करवाई । जिसके तहत मेवाड़-मारवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ तथा राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ किया। (घोसुंडी की बावड़ी पर प्रशस्ति)

रानी श्रृंगार देवी ने घोसुंडी की बावड़ी का निर्माण करवाया और अभिलेख लगवाया था।

सारंगपुर युद्ध / मालवा युद्ध 1437 ई. : महपा पँवार मेवाड़ से भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम की शरण में पहुँच गया। राणा कुंभा द्वारा महपा पँवार की मांग की गई थी, लेकिन महमूद खिलजी ने शरणार्थी को आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। कुम्भा ने रणमल राठौड़ की सैनिक सहायता से 1437 ई० में ‘सारंगपुर के युद्ध’ (मध्य प्रदेश) में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर बंदी बना लिया। बताया जाता है कि राणा कुंभा ने खिलजी को 6 माह तक बंदी बनाकर रखा था और फिर बाद में छोड़ दिया था।

राणा कुम्भा ने सारंगपुर विजय के उपलक्ष में विजय स्तंभ बनवाया था।

चंपानेर संधि 1456/57 ई. : गुजरात और मालवा के सुल्तान ने चांपानेर नामक स्थान पर 1456 में एक समझौता किया की एक साथ दोनों सेनाएँ मेवाड़ पर आक्रमण करेगी। साथ ही यह भी समझौता हुआ की अगर जीत गए तो मेवाड़ का दक्षिण दिशा वाला भाग गुजरात में और बाकी सारा मालवा में मिला दिया जाएगा।

संधि के अनुसार कुतुबुद्दीन चित्तौड़ के लिए चला और मार्ग में आबू पर अधिकार कर आगे बढ़ा। महमूद मालवा की तरफ से राणा के राज्य में घुसा।

बदनोर युद्ध (भीलवाड़ा) : 1457 में इन दोनों की सयुंक्त सेना ने राणा के विरुद्ध युद्ध किया, लेकिन कुंभा को हरा नहीं सके । राणा कुंभा ने अपनी कूटनीति से दोनों सेनाओं को हरा दिया था।

नागौर का युद्ध : इसका आरम्भ मुजाहिद खान और शम्स खान नामक दो भाइयों के बीच विवाद से आरम्भ हुआ जिसमें शम्स खान पराजित हुआ। इसके बाद शम्स खान ने राणा कुम्भा की सहायता से नागौर को पुनः जीत लिया। किन्तु शम्स अपने वचन से मुकर गया जिससे एक और युद्ध हुआ जिसमें राणा कुम्भा ने शम्स खान को पराजित कर नागौर पर अधिकार कर लिया।

राणा कुम्भा का स्थापत्य

कुम्भा के काल को ‘स्थापत्य कला का स्वर्ण युग’ कहते हैं। वीर विनोद पुस्तक (इस ग्रंथ की रचना मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह के शासनकाल में की गई) के लेखक श्यामलदास (भीलवाड़ा निवासी) के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनवाए, अतः इसे ‘राजस्थानी स्थापत्य कला का जनक’ कहते हैं।

अपने राज्य की पश्चिमी सीमा और सिरोही के बीच के कई तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबन्दी की और सिरोही के निकट बसन्ती दुर्ग बनवाया। मेरो के प्रभाव को बढ़ने से रोकने के लिए मचान दुर्ग (सिरोही) का निर्माण करवाया। कोलन और बदनौर (ब्यावर) के निकट बैराट के दुर्गों को स्थापना की गयी। भोमट के क्षेत्र में भी अनेक दुर्ग बनाये गये जिससे भीलों की शक्ति पर राज्य का प्रभाव बना रहे। कीर्तिस्तम्भ के अनुसार केन्द्रीय शक्ति को पश्चिमी क्षेत्र में अधिक सशक्त बनाये रखने के लिए और सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिए आबू में 1509 वि.सं. में अचलगढ़ (सिरोही) का दुर्ग बनवाया गया। यह दुर्ग परमारों के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर इस तरह से पुनर्निर्मित किया गया था कि उस समय की सामरिक व्यवस्था के लिए उपयोगी प्रमाणित हो सके। कुम्भलगढ़ (राजसमन्द) का दुर्ग कुम्भा की युद्ध कला और स्थापत्य रुचि का महान् चमत्कार कहा जा सकता है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग का पुननिर्माण करवाया तथा यहाँ एक ‘विजयस्तम्भ’ बनवाया, अनेक जलाशयों का निर्माण करवाया। कुम्भाकालीन स्थापत्य में मन्दिरों के स्थापत्य का बड़ा महत्त्व है। ऐसे मन्दिरों में कुम्भस्वामी तथा श्रृंगार चवंरी मंदिर (चित्तौड़), मीरा मन्दिर (एकलिंगजी), रणकपुर का मन्दिर अपने ढंग के अनूठे हैं।

रणकपुर के चौमुखा मंदिर (आदिनाथ) का निर्माण देपाक नामक शिल्पी के निर्देशन में हुआ।

कुंभलगढ़ प्रशस्ति : कुंभलगढ़ प्रशस्ति की रचना 1460 ई. में पूर्ण हुई। कुंभलगढ़ प्रशस्ति का रचयिता कवि महेश था।

विजय स्तम्भ

कुम्भा ने मालवा विजय के उपलक्ष्य में 9 मंजिला विजय स्तम्भ (Victory Tower) का निर्माण 1437 ई. में करवाया। जिसकी शुरूआत 1437-40 ई. में की गई, जो 1448 ई. में बनकर तैयार हुआ

इसे विष्णुध्वजगढ़ भी कहा जाता है। इसमें अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अंकित है अतः भारतीय मूर्ति कला का विश्वकोष / मूर्तियों का अजायबघर कहलाता है। यह इमारत 9 मंजिला व 120 / 122 फिट ऊँची है। इस स्तम्भ की तीसरी मंजिल पर अल्लाह लिखा मिलता है। विजय स्तम्भ का निर्माण जैता व उसके पुत्र नापा, पोमा व पूँजा की देखरेख में करवाया गया। आसमानी बिजली गिरने से इसका एक भाग क्षतिग्रस्त हो गया था। जिसका पुनः निर्माण महाराणा स्वरूप सिंह ने करवाया था।

यह विजय स्तम्भ राजस्थान पुलिसराजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रतीक चिह्न है तथा 1949 ई. में विजय स्तम्भ पर डाक टिकट जारी किया गया। यह राजस्थान की पहली इमारत थी जिस पर डाक टिकट जारी हुआ था।

इस विजय स्तम्भ को कर्नल जेम्स टॉड ने देखा और कहा कि ‘कुतुब मीनार इस स्तम्भ से ऊँची है परंतु यह इमारत कुतुब मीनार से भी बेहतरीन है।

कीर्ति स्तम्भ

इसे 1460 ई. में बनवाया। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि थे लेकिन इनका निधन हो जाने के कारण इस प्रशस्ति को उनके पुत्र कवि महेश ने पूरा किया। इस पर तीसरी मंजिल पर अरबी में 9 बार अल्लाह शब्द लिखा हुआ है।

रमाबाई/वागीश्वरी (कुम्भा की पुत्री) ने जावर में रमा कुंड, रमास्वामी मंदिर (विष्णु भगवान का मंदिर) का निर्माण करवाया। इस विष्णु मंदिर के शिल्पी ईश्वर थे, जो कि प्रसिद्ध शिल्पी मंडन के पुत्र थे।

महाराणा कुम्भा न केवल वीर, युद्धकौशल में निपुण तथा कला प्रेमी थे वरन् एक विद्वान तथा विद्यानुरागी भी थे। महाराणा कुम्भा स्वंय वीणा बजाया करते थे। इनके संगीत गुरू सारंग व्यास थे। जबकी इनके गुरू जैन आचार्य हीरानंद थे।

एकलिंगमाहात्म्य से विदित होता है कि वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण, राजनीति और साहित्य में बड़ा निपुण था। संगीतराज, संगीतमीमांसा एवं सूड़प्रबन्ध इनके द्वारा रचित संगीत के ग्रन्थ थे। ‘संगीतराज’ के पांच भाग- पाठरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्यरत्नकोश और रसरत्नकोश हैं। ऐसी मान्यता है कि कुम्भा ने चण्डीशतक की व्याख्या, गीतगोविन्द की टीका, रसिकप्रिया की टीका (जयदेव के गीत गोविंद पर), चंडी सतक टीका और संगीतरत्नाकर की टीका लिखी थी। कुम्भा के अन्य प्रमुख ग्रंथ कामराज रतिसार (7 अंग), सुधा प्रबन्ध - रसिक प्रिया का पूरक ग्रंथ, राजवर्णन एकलिंग माहात्म्य का प्रारंभिक भाग, संगीतक्रम दीपिका, नवीन गीतगोविन्द वाद्य प्रबंध, संगीत सुधा, हरिवर्तिका आदि हैं। उनकी उपाधि अभिनव भारताचार्य (संगीत कला में निपुण) से सिद्ध है कि वह स्वयं महान् संगीतकार थे।

महाराणा कुम्भा द्वारा लिखे गये ग्रंथ - Trick

राणा कुम्भा के दरबारी विद्वान

मंडन : मंडन मुलतः गुजरात के ब्राहम्ण थे और कुम्भा के प्रमुख वास्तुकार थे। ये कुंभलगढ़ दुर्ग के मुख्य शिल्पी थे। इनके द्वारा लिख गये प्रमुख ग्रंथ -

  • राजवल्लभ मंडन - भवन, कुएं, तालाब से संबंधित
  • प्रसाद मंडन - मंदिरों, देवालयों से संबंधित
  • देवमूर्ति प्रकरण - मूर्ति निर्माण व स्थापना से संबंधित
  • शकुन मंडन - शुभ व अशुभ की जानकारी
  • वास्तुसार - वास्तु कला से संबंधित

नापा : नापा मंडन के भाई थे। इनके द्वारा ‘वास्तु मंजरी’ ग्रंथ लिखा गया था।

गोविंद : गोविंद मंडन के पुत्र थे। इनके द्वारा कलानिधि, द्वार दीपिका, उद्धार धोरिणी पुस्तक लिखी गई।

कान्हड़ व्यास : इन्होंने एकलिंग महात्म्य की रचना की। इसमें गुहिल वंशावली का वर्णन है। इसका प्रथम भाग राज वर्णन नाम से कुंभा ने लिखा था।

अत्रि भट्ट, महेश भट्ट : कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति

कुंभा के दरबार में सोन सुंदर, कामुनी सुंदर नामक जैन विद्वान भी थे।

महाराणा कुभा की उपाधियां

महाराजाधिराज - राजाओं का भी राजा

अभिनव भरताचार्य - संगीत का अच्छा ज्ञाता

हिंदु सुरताण - हिंदु शासकों का हितैषी

हालगुरू - पर्वतीय दुर्गों का स्वामी होने के कारण

शैलगुरू - युद्ध कला में निपुण होने के कारण

दानगुरू - दानी होने के कारण

अश्वपति - कुशल घुड़सवार

राजगुरू - राजनीतिक सिद्वांतों का ज्ञाता

राणा कुम्भा के जीवन के अंतिम काल में उन्माद नामक रोग हो गया था। कुम्भा की 1468 ई. में कुम्भलगढ़ के अंदर मामादेव कुंड पर उनके पुत्र ऊदा ने हत्या कर दी। ऊदा ‘मेवाड़ का पितृहन्ता’ कहलाता है।

ऊदा/उदयसिंह (1468 से 1473 ई.)

पितृहन्ता होने के कारण मेवाड़ के राजपूत सरदारों ने ऊदा को स्वीकार नहीं किया। सरदारों ने राव चूड़ा के पूत्र कांधल की अध्यक्षता में फैसला किया कि ऊदा के छोटे भाई रायमल को राणा बनाएगें, रायमल उस समय अपने ससुराल ईडर में था, रायमल को वहां से बुलाया व सेना सहित ब्रह्म की खेड़ ऋषभदेव होते हुए जावर पहुंचा, जावर के पास दाड़िमपुर में युद्ध हुआ, यहां रायमल की विजय हुई। इसके बाद रायमल ने चित्तौड़ को जीत लिया, उदा भागकर कुंभलगढ़ आ गया और उसके बाद कुंभलगढ़ से भी उसे भगा दिया। यहां से उदयसिंह/ऊदा अपने पुत्रों सेसमल व सूरजमल सहित अपने ससुराल सोजत गया उसके बाद कुछ दिन बीकानेर में रहा, उसके बाद मांडु के सुल्तान ग्यासशाह/ग्यासुद्दीनन की शरण में चला गया। ऊदा ने गयासुद्दीन से मेवाड़ राज्य को प्राप्त करने के लिए सहायता मांगी। ग्यासुद्दीन ने प्रारंभ में ऊदा की सहायता करने से मना कर दिया। इस पर ऊदा ने अपनी पुत्री का विवाह करने की बात कही और गयासुद्दीन को अपनी सहायता करने पर राजी कर लिया। इसी बीच बिजली गिरने से ऊदा की मृत्यु हो गई।

राणा रायमल (1473 से 1509 ई. तक)

ग्यासुद्दीन ने ऊदा के पुत्रों की सहायता के बहाने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। महाराणा रायमल ने ग्यासुद्दीन की सेना को हरा दिया। इसके बाद दुसरी बार ग्यासुद्दीन ने जफर खां के नेतृत्व में सेना भेजी यह युद्ध मांडलगढ़ में हुआ इसमें भी महाराणा रायमल विजयी रहे।

तीसरी बार 1503 ई. में ग्यासुद्दीन के पुत्र नासिर शाह/नासिरूद्दीन के नेतृत्व में मांडु की सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। इस समय तक राणा रायमल के पुत्रों में उत्तराधिकारी युद्ध प्रारम्भ हो गया था। इसलिए नासिरूद्दीन इस बार विजयी रहा।

नसिरूद्दीन ने रायमल के सामंत भवानीदास की पुत्री को उठाकर शादी कर ली यही इतिहास में चित्तौड़ी बेगम के नाम से प्रसिद्ध हुई।

रायमल के 11 रानियाँ 13 पुत्र व 2 पुत्रियां थी। प्रमुख पुत्र पृथ्वीराज, जयमल, संग्रामसिंह (सांगा), रायसिंह थे। इनमें पृथ्वीराज सबसे बड़े थे और संग्रामसिंह सबसे छोटे थे।

रायमल के समय इनके पुत्रों में उत्तराधिकारी युद्ध प्रारम्भ हो गया, एक दिन पृथ्वीराज, जयमल व संग्रामसिंह ने अपनी जन्म पत्री एक ज्योतिष को दिखाई उसने कहा राज योग संग्रामसिंह के लिखा है। इसलिए मेवाड़ का स्वामी संग्रामसिंह ही बनेगा। इस पर नाराज होकर पृथ्वीराज ने संग्रामसिंह पर तलवार से वार किया जिससे संग्रामसिंह की एक आंख फूट गई। रायमल के चाचा सारंगदेव ने कहा कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास न करके राजयोग किसको मिलेगा इसके लिए हम भीमलगांव की चारणी के पास चलते है, जो देवी का अवतार मानी जाती है। तब तीनों भाई पृथ्वीराज, जयमल व संग्रामसिंह सारंग देव के साथ चारणी के पास गये उसने भी कहा भावी राणा संग्रामसिंह ही बनेगा। पृथ्वीराज व जयमल दूसरों के हाथो मारे जाएगें। यह बात सुनकर पृथ्वीराज व जयमल ने सांगा को मारना चाहा। यहां सारंगदेव ने इनका बीच बचाव किया और इस दौरान सारंगदेव की मृत्यु हो गई। यहाँ से सांगा घोड़े पर सवार होकर भागा जयमल ने उसका पीछा किया संग्रामसिंह संवंत्री गांव पहुँचा यहाँ राठौड़ बीदा ने शरण दी, जयमल अपने साथियों सहित पहुँचा बिदा ने सांगा को गोड़वार की तरफ भेज दिया व बीदा जयमल से लड़ता हुआ मारा गया। उसके बाद सांगा श्रीनगर (अजमेर) कर्मचन्द पंवार के यहाँ शरण ली, कर्मचन्द को जब पता चला कि ये मेवाड़ का राजकुमार है, तब उसने अपनी पुत्री का विवाह संग्रामसिंह से किया, संग्रामसिंह जब राणा बना तब उसने कर्मचन्द का अहसान उतारने के लिए उसे जागीर दी व ‘रावत’ की उपाधि दी।

जयमल की मृत्यु: जयमल सोलंकियों से युद्ध करता मारा गया। एक मत यह भी है कि मेवाड़ की एक जागीर टोडा पर मांडू के शासक गयासुद्दीन ने अधिकार कर लिया। टोडा के जागीरदार राव सुरताण ने यह प्रतिज्ञा ले रखी थी की जो भी मुझे टोडा की जाखीर जीत कर लोटाएगा मैं उसी के साथ अपनी पुत्री का विवाह करूंगा। राव सुरताण की पुत्री अति सुंदर थी जिसका नाम ताराबाई था। उसकी सुंदरता पर आसकत हो कर जयमल उसके पास गये और विवाह का प्रस्ताव रखा। लेकिनी सुरताण ने जब अपनी शर्त के बारे में बताया तो जयमल ने राव सुरताण व उसकी पुत्री के साथ गलत व्यवहार किया। जिसके कारण राव सुरताण ने नराज हो कर जयमल की हत्या कर दी और रायमल को सुचीत करवा दिया।

कुंवर पृथ्वीराज ने गयासुद्दीन से छीनकर टोडा की रियासत वापस राव सुरताण को लौटा दी और राव सुरताण ने अपनी शर्त के अनुसार अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज से कर दिया।

पृथ्वीराज की मृत्यु : पृथ्वीराज की बहन आनन्दा बाई का विवाह सिरोही के राव जगमाल से हुआ जगमाल, पृथ्वीराज की बहन को दुख देता था। पृथ्वीराज जगमाल को समझाने के लिए सिरोही गया, वापस आते समय जगमाल ने जहर मिली हुई 3 गोलियाँ दी व कहा ये गोलियां बहुत अच्छी है इन्हें खा लेना, कुंभलगढ़ के निकट पृथ्वीराज ने ये गोलियाँ खायी, यहाँ इसकी मृत्यु हो गई। कुंभलगढ़ दुर्ग में पृथ्वीराज की बारह खम्बों की छतरी है।

पृथ्वीराज को ‘उडणा’ पृथ्वीराज भी कहते हैं। अजमेर के प्रशासन का संचालन करते समय पृथ्वीराज ने अजमेर दुर्ग के कुछ भागों का निर्माण करवाकर दुर्ग का नाम अपनी पत्नि तारा (राव सुरताण की पुत्री) के नाम पर तारागढ़ कर दिया।

बनवीर जिसने विक्रमादित्य/विक्रमसिंह की हत्या की थी, वो पृथ्वीराज की पासवान रानी का पुत्र था।

इसके अलावा रायसिंह को उसके अवगुणों के कारण सिसोदिया सरदार पसंद नहीं करते थे। इस प्रकार संग्राम सिंह ही उत्तराधिकारी रह गये थे।

इस प्रकार जब संग्राग सिंह का कोई विरोधी नहीं बचा और महाराणा रायमल अपने अंतिम समय में थे तब महाराणा रायमल ने 1509 ई. में संग्राम सिंह को अजमेर से बुलवाया और अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

महाराणा रायमल ने अपने शासनकाल में खेती को बहुत प्रोत्साहन दिया। इसके लिए उन्होंने तीन तलाबों राम, शंकर और समयासंकट का निर्माण करवाया।

महाराणा रायमल के समय प्रमुखशिल्पकार अर्जुन थे। रायमल ने अर्जुन की लेख रेख में एकलिंग मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। इसके अलावा इनके दरबार में प्रमुख विद्वान गोपाल भट्ट व महेश थे। इनकी पत्नी श्रृंगारदेवी ने घोसुंडी की बावड़ी का निर्माण करवाया था।

महाराणा सांगा (1509-1528ई.)

कुंवर संग्रामसिंह महाराणा सांगा के नाम से मशहूर हुए। महाराणा सांगा के राज्याभिषेक के समय दिल्ली पर सुल्तान सिकन्दर लोदी, गुजरात पर महमूद बेगड़ा और मालवा पर नासिर शाह/नासिरूद्दीन खिलजी का राज था।

महाराणा संग्रामसिंह पर ठाकुर कर्मचंद के बड़े उपकार थे, क्योंकि ठाकुर कर्मचंद ने उनको मुश्किल दिनों में शरण दी थी। महाराणा रायमल ने ठाकुर कर्मचंद को जागीर दी थी, परन्तु महाराणा सांगा ने विचार किया कि यह जागीर ठाकुर कर्मचंद के सहयोग की तुलना में काफ़ी कम है। महाराणा सांगा ने राजगद्दी पर बैठते ही श्रीनगर के ठाकुर कर्मचन्द पंवार को अजमेर, परबतसर, मांडल, फूलिया, बनेड़ा आदि जागीरें दीं, जिनकी कुल वार्षिक आय 15 लाख थी। महाराणा ने ठाकुर कर्मचंद को ‘रावत’ की पदवी भी दी।

इस प्रकार उत्तर-पूर्वी मेवाड़ के भू-भाग में एक शक्तिशाली सामन्त स्थापित कर सांगा ने अपनी सीमा की सुरक्षा कर ली। दक्षिण और पश्चिमी मेवाड़ की सुरक्षा के लिए उसने सिरोही तथा वागड़ के शासकों को अपना मित्र बनाया तथा ईडर के राज्य-सिंहासन पर अपने प्रशंसक रायमल को बिठाया। मारवाड़ का शासक भी उसका सहयोगी बन गया।

मेवाड़ के दक्षिण-पूर्व की सीमा को सुरक्षित करने के लिए मेदनीराय को गागरोण और चंदेरी की जागीरें दे दी।

महाराणा सांगा के कुँवरपदे काल में 2 बार रावत सारंगदेव ने उनके प्राण बचाए थे। अपने स्वर्गीय काका सारंगदेव के इन उपकारों को याद करके महाराणा सांगा ने रावत सारंगदेव के पुत्र रावत जोगा को बुलवाया। महाराणा सांगा ने रावत जोगा को मेवल परगने में कुछ और गांव दिए और यह आदेश दिया कि अब से सारंगदेव जी के वंशज सारंगदेवोत कहलाएंगे।

1517 ई. में महाराणा सांगा ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में एक शिलालेख खुदवाया। इस शिलालेख के अनुसार महाराणा सांगा ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित कालिका माता मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। महाराणा सांगा के शासनकाल में 1516 ई. में लिखे गए जैन ग्रंथ ‘जयचंद्रचैत्य परिपाटी’ के अनुसार उस समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग में 32 जैन मंदिर थे।

गुजरात-मेवाड़ संघर्ष : गुजरात-मेवाड़ संघर्ष का अध्याय जो महाराणा कुम्भा के समय से आरम्भ हुआ था उसकी समाप्ति भी नहीं होने पायी थी कि राणा सांगा ने फिर उसे आरम्भ कर दिया। सांगा के समय गुजरात और मेवाड़ के बीच संघर्ष का तात्कालिक कारण ईडर का प्रश्न था। ईडर के राव भाण राठौड़ के 2 पुत्र थे सूर्यमल व भीमसिंह। राव भाण के देहांत के बाद सूर्यमल गद्दी पर बैठे। डेढ़ वर्ष तक राज करने के बाद सूर्यमल का देहांत हो गया।

फिर सूर्यमल के पुत्र रायमल ईडर की गद्दी पर बैठे, लेकिन रायमल की उम्र कम होने के कारण उनके काका भीमसिंह ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर की मदद लेकर रायमल को गद्दी से बर्खास्त किया और खुद गद्दी पर बैठ गए। रायमल ने मेवाड़ आकर महाराणा सांगा की शरण ली

महाराणा सांगा ने रायमल को मदद देने का आश्वासन दिया और अपनी पुत्री की सगाई रायमल से करवा दी। कुछ दिन बाद भीमसिंह का देहांत हो गया। भीमसिंह के बाद उनके पुत्र भारमल ईडर की गद्दी पर बैठे।

जब रायमल युवा हुए, तो महाराणा सांगा ने भारमल को ईडर की गद्दी से खारिज करके रायमल को ईडर का राज दिलवा दिया। इस प्रकार महाराणा सांगा ने 1515 ई. में ईडर के वास्तविक उत्तराधिकारी को उनका हक दिलाया। जब गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर ने यह सुना कि राणा सांगा ने भारमल को ईडर से निकालकर वहाँ का राज्य रायमल को सौंप दिया है तो उसने अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क को उसकी सहायता करने को कहा। निजामुल्मुल्क ने ईडर पर अधिकार कर रायमल को वहां से भगा दिया तथा भारमल को ईडर का सिंहासन सौंपा। सांगा ने अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क को पदच्युत करने के लिए रायमल को एक बड़ी सेना देकर भेजा। निजामुल्मुल्क को ईडर छोड़कर भागना पड़ा। सुल्तान ने इस पराजय से क्षुब्ध होकर जहीरुल्मुल्क को ईडर के विरुद्ध भेजा, परन्तु उसे सफलता न मिली। जब तीसरी बार मुबारिज-उल-मुल्क को भेजा गया तो उसे ईडर पर अधिकार करने में सफलता मिली। इस स्थिति में 1520 ई. को स्वयं महाराणा को एक बड़ी सेना लेकर उधर प्रस्थान करना पड़ा। राजपूतों की विशाल सेना देखकर मुबारिज-उल-मुल्क भाग कर अहमदनगर के किले में जा छुपा। महाराणा ने अहमदनगर को जा घेरा। महाराणा की सेना बड़नगर को लूटती हुई चित्तौड़ लौट आयी।

महाराणा की इस विजय से गुजरात का सुल्तान मुजफ्फर बड़ा लज्जित हुआ। उसने 1520 ई. में मलिक अयाज (सौरठ) और किवामुल्मुल्क की अध्यक्षता में दो अलग-अलग सेनाएं मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजी। राणा की सेना में सलहदी तँवर आसपास के राजपूतों के साथ आ मिला। मलिक अयाज ने युद्ध में पराजित होने की सम्भावना से राणा से सन्धि कर ली जिससे सुल्तान को भी लौटने के लिए विवश होना पड़ा।

राणा सांगा और मालवा का संबंध : महमूद खिलजी द्वितीय के समय मालवा की स्थिति अच्छी थी। सुल्तान एक प्रबल राजपूत सरदार मेदिनीराय के हाथ में था, जिसे मुसलमान अमीर नहीं चाहते थे। अन्त में इन अमीरों ने गुजरात के सुल्तान की सहायता से मेदिनीराय को माण्ड से भगा दिया।

गागरोण का युद्ध (1519 ई.) : मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय एवं मेवाड़ महाराणा सांगा के बीच राज्य विस्तार की महत्त्वाकांक्षा के कारण संबंध कटु थे। इसी बीच महाराणा सांगा ने मालवा से निष्कासित सरदार मेदिनीराय की सहायता कर उसे चंदेरी एवं गागरोण की जागीर प्रदान की। अतः महमूद खिलजी द्वितीय ने मेवाड़ के साथ युद्ध का अवसर समझकर 1519 ई. में गागरोण पर आक्रमण कर दिया। मगर महाराणा सांगा का मेदिनीराय की सहायतार्थ आने से महमूद खिलजी गागरोण के युद्ध में पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया। सुल्तान का पुत्र आसफखां इस युद्ध में मारा गया। सांगा सुल्तान को अपने साथ चित्तौड़ ले गया, जहाँ उसे तीन माह कैद रखा गया। एक दिन महाराणा सांगा सुल्तान को एक गुलदस्ता देने लगा। इस पर उसने कहा कि किसी चीज के देने के दो तरीके होते हैं। एक तो अपना हाथ ऊँचा कर अपने से छोटे को देवें या अपना हाथ नीचा कर बड़े को नजर करें। मैं तो आपका कैदी हूँ इसलिए यहाँ नजर का तो कोई सवाल ही नहीं और भिखारी की तरह केवल इस गुलदस्ते के लिए हाथ पसारना मुझे शोभा नहीं देता। यह उत्तर सुनकर महाराणा बहुत प्रसन्न हुआ और गुलदस्ते के साथ सुल्तान को मालवा का आधा राज्य सौंप दिया। महाराणा को रत्नजड़ित मुकुट और साने की कमर पेटी भेंट की। तत्पश्चात् छः महीने बाद उसके पुत्र को जमानत के रूप में रखकर उसे ससम्मान मुक्त कर दिया। ‘तबकाते अकबरी’ के लेखक निजामुद्दीन अहमद ने राणा के इस उदार व्यवहार की प्रशंसा की।

दिल्ली सल्तनत और सांगा : महाराणा सांगा ने दिल्ली सल्तनत (सिकंदर लोदी) को निर्बल पाकर उसके अधीनस्थ वाले मेवाड़ के निकटवर्ती भागों को अपने राज्य में मिलाना आरम्भ कर दिया परन्तु जब दिल्ली सल्तनत की बागड़ोर इब्राहीम लोदी के हाथ में आयी तो उसने 1517 ई. में एक बड़ी सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी। दिल्ली सुल्तान इब्राहीम लोदी एवं राणा सांगा के मध्य दो युद्ध हुए।

खातोली का युद्ध (1517 ई.) : मेवाड़ के महाराणा सांगा एवं दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी की महत्त्वाकांक्षाओं के फलस्वरूप दोनों के मध्य 1517 ई. में ‘खातोली’ (पीपल्दा तहसील, कोटा) में युद्ध हुआ। महाराणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया। अमर काव्य वंशावली के अनुसार इस युद्ध में राणा सांगा ने लोदी के एक शहजादे को बन्दी बना लिया था, जिसे कुछ दण्ड लेकर छोड़ा गया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप राजपूताना में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण उत्तरी भारत में राणा सांगा की धाक जम गई थी। दिल्ली जो भारत के शासन का प्रतीक थी, के सुल्तान को पराजित करने के बाद सांगा दिल्ली पर हिन्दू सत्ता स्थापित करने का स्वप्न देखने लगा।

बारी का युद्ध (1518 ई.) : दूसरे वर्ष सुल्तान ने ‘मियाँ हुसैन फरमूली’ तथा ‘मियाँ माखन’ के साथ सेना को राणा के विरुद्ध पहली पराजय का बदला लेने भेजा। फारसी तवारीखों में मियाँ हुसैन का इस अवसर पर राणा से मिल जाना और फिर मियाँ माखन के पत्र से सुल्तान की सेना का सहयोगी बनना, आदि वर्णन लिखा है। इनमें इस युद्ध में राणा की हार होना भी उल्लिखित है, परन्तु बाबर ने धौलपुर की लड़ाई में राजपूतों की विजय होना लिखा है। महाराणा सांगा ने धौलपुर के पास ‘बारी’ नामक स्थान पर 1518 ई. में इब्राहिम लोदी के सेनानायकों को पराजित किया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप लोदी सुल्तान की शक्तिहीनता स्पष्ट हो गई और राणा सांगा की महत्त्वाकांक्षा को बल मिला। इन विजयों से उत्तरी भारत का नेतृत्व भी उसे प्राप्त हो गया। दिल्ली के शासक को परास्त करने से राजनीतिक धुरी मेवाड़ की ओर घूम गयी और सभी शक्तियाँ देशी और विदेशी, सांगा की शक्ति को मान्यता देने लगी। मेवाड़ की शक्ति की यह चरम सीमा थी।

राणा सांगा और मुगल सम्राट बाबर : मेवाड़ राज्य के प्रमुख पुरोहित की डायरी से ‘मेवाड़ के संक्षिप्त इतिहास’ के अनुसार बाबर ने काबुल से राणा को कहलाया था कि वह इब्राहीम लोदी को परास्त करने में उसकी सहायता करे। उसने यह आश्वासन भी दिया कि विजयी होने की हालत में दिल्ली बाबर के राज्य में रहेगा और आगरा तक राणा के राज्य की सीमा रहेगी। इस संबंध में बातचीत ‘सिलहदी तंवर’ के द्वारा हुई और राणा ने भी इस प्रस्ताव की स्वीकृति भिजवा दी। इस प्रकार के पत्र-व्यवहार का ब्यौरा पाण्डुलिपि में उदृत है। जब राणा के सामन्तों को यह पता चला कि वह एक विदेशी को सहायता पहुँचाना चाहता है तो उन्होंने उसे एसा करने से रोका, यह कहते हुए कि ‘साँप को दूध पिलाने से क्या लाभ’। राणा अपने सामन्तों की बात को भला कैसे टाल सकता था? सांगा ने अपनी शक्ति को संगठित करना आरम्भ कर दिया। अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए उसने चित्तौड़ से प्रस्थान किया और खंडार और उसके आस-पास के 200 गांवों पर अधिकार कर लिया। वह बयाना दुर्ग की तरफ बढ़ा और उसे जीत लिया।

बयाना का युद्ध (16 फरवरी, 1527) : मेवाड़ राज्य के प्रमुख पुरोहित की डायरी ‘मेवाड़ का संक्षिप्त इतिहास’ के अनुसार जब बाबर ने दिल्ली व आगरा जीत लिया तो वह पाँच दिन आगरा में ठहरा। उसके बाद बाबर ने फतहपुर सीकरी पर अधिकार कर पड़ाव डाला। बयाना पर अधिकार करने हेतु बाबर ने पहले दोस्त इश्कआका को भेजा, लेकिन वह असफल रहा तब बाबर ने अपने बहनोई मेहंदी ख्वाजा को भेजा। ख्वाजा ने बयाना जीत लिया। राणा सांगा, मारवाड़ के शासक राव गांगा के पुत्र मालदेव, चन्देरी के मेदिनीराय, मेड़ता के रायमल राठौड़, सिरोही के अखैराज दूदा, डूँगरपुर के रावल उदयसिंह, सलूम्बर के रावत रतनसिंह, सादड़ी के झाला अज्जा, गोगुन्दा का झाला सज्जा आदि को एकत्रित किया। राणा सांगा ने अपनी सेना को संगठित किया और एक विशाल सेना लेकर मुगलों से युद्ध करने को आगरा की ओर बढ़ा।

इसी समय उत्तरप्रदेश के चन्दावर क्षेत्र से चन्द्रभान और माणिकचन्द चौहान भी ससैन्य राणा के पास आ पहुंचे। राणा सांगा पहले बयाना की ओर बढ़ा। ‘मेहंदी ख्वाजा’ ने सांगा का मार्ग रोकने के लिए अपने सैनिक दस्ते भेजे तथा हसन खाँ मेवाती को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया लेकिन हसन खाँ मेवाती इससे सर्वथा अप्रभावित होकर ससैन्य राणा सांगा से जा मिला। बाबर ने दुर्ग में घिरी मुगल सेना की सहायतार्थ सुल्तान मिर्जा के नेतृत्व में एक सेना भेजी, लेकिन राजपूतों ने उसे परास्त कर खदेड़ दिया। 16 फरवरी, 1527 को भरतपुर राज्य में बयाना नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में घमासान संघर्ष हुआ। राणा सांगा ने बाबर की भेजी हुई सेना को ऐसी बुरी तरह परास्त किया कि पराजय का समाचार सुनकर मुगलां के छक्के छूट गये। राणा सांगा ने मुगलों के भारी असले को अपने कब्जे में ले लिया। बयाना की विजय राणा सांगा की अन्तिम महान् विजय थी।

खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) : खानवा युद्ध राणा सांगा एवं मुगल सम्राट जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को बयाना के पास (वर्तमान रूपबास) हुआ। इस युद्ध के निग्नलिखित कारण थे-

  • बाबर अपने ग्रंथ तुजुक-ए-बाबरी (बाबरनामा) में राणा सांगा पर पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर का असहयोग करने का आक्षेप लगाता है (जबकि अन्य स्रोतों से यह असिद्ध है)।
  • यह महत्त्वाकांक्षाओं का युद्ध था।

युद्ध की घटनाएँ : खानवा युद्ध में कर्नल टॉड के अनुसार राणा की सेना में 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव एवं 104 सरदार सम्मिलित हुए। जिनमें प्रमुख थे- अफगान सुल्तान महमूद लोदी, मेव शासक हसन खां मेवाती, मारवाड़ से राव गंगा का पुत्र मालदेव, बीकानेर से राव जैतसी का पुत्र कु. कल्याणमल, आम्बेर का कच्छवाहा शासक पृथ्वीराज, ईडरा भारमल, मेड़ता का रायमल राठौड़, रायसीन का सलहदी तंवर, बागड का उदयसिंह, नागार का खाना जादा, सिरोही का अखैराज, डूँगरपुर का रावल उदयसिंह, चंदेरी का मेदिनीराय, सलूम्बर का रावत रतनसिंह, वीरमदेव मेड़तिया आदि सम्मिलित हुए। बाबर पाँच दिन आगरा में ठहरकर सीकरी की ओर बढ़ा जहाँ पानी और रसद के जुटाने की व्यवस्था की गयी। वह स्वयं मोर्चाबन्दी करने लगा। अभाग्यवश इसी समय बयाना के युद्ध से लौटे हुए शाह मंसूर किस्मती आदि सिपाहियों ने राजपूतों के कौशल की प्रशंसा करना शुरू की जिसके फलस्वरूप बाबर की सेना में एक भय और आतंक क वातावरण बन गया। इन्हीं दिनों काबुल से आने वाले एक ज्योतिषी 'मुहम्मद शरीफ' ने भी यह प्रचार करना आरम्भ कर दि कि “मंगल का तारा पश्चिम में है इसलिए पूर्व से लड़ने वाल पराजित होंगे।” बाबर के ग्रह उसके अनुकूल नहीं हैं। स्थिति को काबू में लाने के लिए बाबर को एक युक्ति सूझी। उसने 25 फरवरी, 1527 ई. को शराब न पीने की प्रतिज्ञा की। जितने सोने-चाँदी की सुराहियाँ और प्याले व अन्य इससे संबंधित उपकरण थे उन्हें तुड़वा दिया और गरीबों में बाँट दियेमुसलमानों से लिये जाने वाले धार्मिक कर (तमगा) को भविष्य में न लेने की घोषणा की। उसने राणा के विरुद्ध युद्ध को 'जिहाद' (धर्मयुद) घोषित किया। जीवन-मरण की घटना को साधारण बताते हुए उसने एक भाषण भी अपने सैनिकों के समक्ष दे डाला, जिससे उन जीवन का सदुपयोग करने की प्रेरणा मिले। इससे हताश सैनिकों में नये जोश का संचार हुआ और वे फिर लड़ने के लिए कटिबद्ध हो गये। इसके साथ ही बाबर ने रायसेन के सरदार सलहदी तंवर के माध्यम से सुलह की बात भी चलाई। महाराणा के इस प्रस्ताव पर अपने सरदारों से बात की किन्तु सरदारों को सलहदी की मध्यस्थता पसंद नहीं आई। 16 फरवरी, 1527 की बयाना विजय के बाद टेढ़े-मेढ़े रास्ते से भुसावर होता हुआ सांगा 13 मार्च, 1527 को खानवा के निकट पहुँचा। 17 मार्च, 1527 ई. प्रातः साढ़े नौ बजे के लगभग युद्ध आरम्भ हो गया। युद्ध के मैदान में राणा सांगा घायल हो गया जिससे युद्ध का मंजर ही बदल गया। घायल राणा को सिरोही के अखैराज दूदा की देखरेख में युद्ध क्षेत्र से बाहर लाया गया तथा बसवा (दोसा) नामक स्थान पर ठहराया गया, जहां आज भी राणा सांगा का स्मारक बना हुआ है। हलवद (काठियावाड़) के झाला राजसिंह के पुत्र झाला अज्जा को सांगा के राजचिह्न धारण करवा कर रणक्षेत्र में हाथी के ओहदे पर बिठाया गया। अंतिम रूप से विजय बाबर की हुई। बाबर न अपने हताहत शत्रुओं की खोपड़ियों को बटोरकर मीनार खड़ी की और वह ‘गाजित्व’ प्राप्ति के श्रेय का भागी बना।

राणा की पराजय के कारण -

  • बाबर के पास तोपखाना होना।
  • बाबर की तुलुगमा पद्धति एवं रणकौशल।
  • राजपूत सेना का एक नेता के अधीन न होना।
  • रायसीन के सलहदी तंवर व नागौर के खानजादा के युद्ध के अंतिम दौर में बाबर से मिल जाना।

राजपूत पक्ष के इतिहासकार टॉड और वीर विनोद के अनुसार राणा की पराजय का कारण सलहदी तंवर का शत्रुओं से मिलना था लेकिन यह भी सत्य है कि तीर गोली का जवाब नहीं दे सकते थे।

‘एलफिंस्टन’ ने लिखा है कि यदि राणा मुसलमानों की पहली घबराहट पर ही आगे बढ़ जाता, तो उसकी विजय निश्चित थी। डॉ ओझा के अनुसार इस पराजय का मुख्य कारण महाराणा सांगा का प्रथम विजय के बाद तुरन्त ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का पूरा समय देना ही था। यदि वह बयाना की पहली लड़ाई के बाद ही आक्रमण करता, तो उसकी जीत निश्चित थी।

खानवा के युद्ध का महत्त्व : इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकल कर मुगलों के हाथ में आ गयी जो लगभग 200 वर्ष से अधिक समय तक उनके पास बरनी रही। यहाँ से उत्तरी भारत का राजनीतिक संबंध मध्य एशियाई देशों से पुनः स्थापित हो गया। युद्ध शैली में भी एक नए सामंजस्य का मार्ग खुल गया।

सांगा के अन्तिम दिन : युद्ध के मैदान से मूर्च्छित अवस्था में सांगा को पालकी में बसवा ले जाया गया। ज्यों ही उसको होश आया वह पुनः युद्ध स्थल के लिए उद्यत हुआ। उसने फिर से चारों ओर अपने सामन्तों को रण-स्थल में उपस्थित होने के लिए पत्र लिखे और स्वयं ईरिच (मध्य प्रदेश) के मैदान में बाबर से टक्कर लेने के लिए आ डटा। जब उसके साथियों ने देखा कि इस बार पराजय से मेवाड़ का सर्वनाश होगा तो उन्होंने मिलकर उसे विष दे दिया, जिसके फलस्वरूप 30 जनवरी, 1528 को 46 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गयी। उसका शव कालपी से माण्डलगढ़ ले जाया गया जहाँ उसका समाधि-स्थल आज भी उस महान् योद्धा का स्मरण दिला रहा है।

सांगा अन्तिम हिन्दू राजा था, जिसके सेनापतित्व में सब राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। सांगा ने अपने देश की गौरव रक्षा में एक आँख, एक हाथ और एक टाँग गंवा दी थी। इसके अतिरिक्त उसके शरीर के भिन्न-भिन्न भागों पर 80 तलवार के घाव लगे हुए थे। बाबर लिखता है कि उसका मुल्क 10 करोड़ की आमदनी का था, उसकी सेना में 1,00,000 सवार थे। उसके साथ 7 राजा, 9 राव और 104 छोटे सरदार रहा करते थे। उसके तीन उत्तराधिकारी भी यदि वैसे ही वीर और योग्य होते, तो मुगलों का राज्य भारतवर्ष में जमन न पाता। इतिहास में महाराणा सांगा का नाम ‘अन्तिम भारतीय हिन्दू सम्राट’ के रूप में अमर है। कर्नल टॉड ने राणा सांगा को ‘सिपाही का अंश’ कहा है। महमूद खिलजी को गिरफ्तार करने की खुशी में सांगा ने चारण हरिदास को चित्तौड़ का सम्पूर्ण राज्य दे दिया था, किन्तु हरिदास ने सम्पूर्ण राज्य न लेकर 12 गांवों में ही अपनी खुशी प्रकट की।

सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ की राजनीतिक स्थिति बड़ी शोचनीय हो चली। दस वर्ष की अवधि में मेवाड़ की राजगददी पर तीन शासक-रतनसिंह (1528-1531 ई.), विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) और बनवीर (1536-1540 ई.) बैठे। राणा रतन सिंह और सूरजमल हाडा दोनों ‘अहेरिया-उत्सव’ (आखेट) खेलते-खेलते आपस में झगड़ पड़े और दोनों आपस में मारे गए।

रतनसिंह (1528-1531 ई.)

महाराणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज (मीराबाई के पति) थे। लेकिन युद्ध में इनकी मृत्यु के बाद महाराणा सांगा ने रतनसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र रतनसिंह शासक बने। रतनसिंह की माता का नाम धनबाई था जो की जोधपुर की राजकुमारी थी। राणा सांगा की पत्नी कर्मावती/कर्णावती (बूंदी की हाड़ा राजकुमारी) के भी दो पुत्र विक्रमादित्य और उदयसिंह थे। लेकिन महाराणा की मृत्यु के समय वे अल्प वयस्क थे।

इसलिए महाराणा सांगा ने कर्मावती और उनके पुत्रों को रणथम्भौर की जागीर दे दी और कर्मावती ने अपने प्रभाव से अपने भाई सूरजमल हाड़ा को अपने पुत्रों का संरक्षक नियुक्त करवा लिया।

कर्णावती ने बाबर के सम्मुख रणथम्भौर के बदले मेवाड़ पर अधिकार का प्रस्ताव रखा। लेकिन बाबर जब तक कर्मावती की मेवाड़ पर विजय में सहायता करता उससे पहले ही बाबर की मृत्यु हो गई। यहां से मेवाड़ की राजनीति में छल कपट की शुरूआत हो चुकी थी। इसी शत्रुता के कारण राणा रतन सिंह और सूरजमल हाडा दोनों खेलते-खेलते आपस में झगड़ पड़े और दोनों आपस में मारे गए

महाराणा विक्रमादित्य (1531-1536 ई.)

राणा सांगा की हाडी रानी कर्मावती के दो अल्प आयु पुत्र विक्रमादित्य व उदयसिंह थे। विक्रमादित्य अल्प वयस्क तो रानी कर्मावती संरक्षिका बनी। सन् 1535 में गुजरात के बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। इस समय राणा सांगा के द्वितीय पुत्र विक्रमादित्य का (1531-36 ई.) शासन था। वह किले की रक्षा का भार देवलिया प्रतापगढ़ के ठाकुर बाघसिंह को सौंप कर बूँदी चला गया। चित्तौड़ की रक्षार्थ कर्मावती (कर्णावती) ने मुगल बादशाह हुमायूँ राखी भेजी। मगर हुमायूँ समय पर सहायता नहीं कर सका। अतः किले का पतन जानकर रानी कर्मावती ने अन्य राजपूत स्त्रियों के साथ इनमें विक्रमादित्य की पत्नी जवाहर बाई भी शामिल थी, जौहर किया तथा राजपूत योद्धा लड़ते हुए मारे गए। यह घटना चित्तौड़ के ‘दूसरा साका’ के नाम प्रसिद्ध है। मार्च, 1535 ई. में बहादुरशाह ने किले पर अधिकार कर लिया। मगर हुमायूँ के आने की खबर सुनकर उसने चित्तौड़ छोड़ दिया। अतः विक्रमादित्य ने पुनः चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। 1536 ई. में विक्रमादित्य चित्तौड़ का पुनः शासक बना। मगर इस युद्ध से उसकी शक्तिहीनता स्पष्ट हो गई। फलतः बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर चित्तौड़ की गद्दी हथिया ली। राणा सांगा के गौरवपूर्ण शासन के बाद यह नपुसंकता की हद थी। कर्नल टॉड के विक्रमादित्य आलोचक थे। टॉड के अनुसार क्या यह अच्छा नहीं रहता, यदि राणा विक्रमादित्य मेवाड़ कुल में पैदा न हुआ होता।

बनवीर (1536-1540 ई.)

विक्रमादित्य की हत्या कर राणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज का अनौरस पुत्र बनवीर शासक बन बैठा। वह उदयसिंह की हत्या करना चाहता था लेकिन उसकी धाय मां पन्ना ने उदयसिंह की जगह अपने बेटे चन्दन का बलिदान दिया, जो स्वामी भक्ति का अद्वितीय उदाहरण है। पन्ना धाय कुछ सरदारों के सहयोग से उदयसिंह को चित्तौड़ से निकालकर कुम्भलगढ़ ले गयी। वहां के किलेदार ‘आशा देवपुरा’ ने उन्हें अपने पास रखा।

उदयसिंह (1540-1572 ई.)

बनवीर से स्वाभिमानी मेवाड़ी सरदार घृणा करते थे। वे एक-एक कर कुम्भलगढ़ चले गये और उदयसिंह के नेतृत्व में शक्ति का संगठन करने लगे। कोठारिया, केलवा, बागोर आदि ठिकानों के जागीरदारों ने मिलकर उसे राजगद्दी पर भी - बिठा दिया। सोनगरे अखेराज चौहान की पुत्री जयवंता बाई से विवाह होने पर उदयसिंह के समर्थकों की संख्या बढ़ गई। अवसर पाकर उदयसिंह ने बनवीर पर आक्रमण कर दिया, 1540 ई. में उदयसिंह ने बनवीर की हत्या कर चित्तौड़ पुनः प्राप्त किया।

उदयसिंह और अफगान शक्ति : शेरशाह सूरी 1543 ई. में मारवाड़ विजय के बाद चित्तौड़ की ओर बढ़ा। राणा उदयसिंह को अभी चित्तौड़ का काम हाथ में लिये केवल तीन ही वर्ष हुए थे। राणा ने किले की कुंजियाँ शेरशाह के पास भेज दी जिससे सन्तुष्ट होकर आक्रमणकारी लौट गया। उसने ‘खवास खाँ’ को अपना राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिए चित्तौड़ में नियुक्त कर दिया। जब शेरशाह की मृत्यु हो गयी तो नाममात्र के प्रभाव को भी चित्तौड़ से समाप्त करने के लिए वहाँ से अफगान अधिकारी को निकाल दिया। आगे चलकर उसने 1557 ई. में अजमेर के अफगानी हाकिम हाजीखाँ पठान को, जिसने राणा की शक्ति को चुनौती दी थी, परास्त किया। उदय सागर तालाब के निर्माण द्वारा लम्बे-चौड़े मैदानी भाग में खेती की सुविधा पैदा कर दी। महाराणा ने चित्तौड़ से अलग हटकर 1559 ई. में उदयपुर नगर की स्थापना की तथा उसे राजधानी बनाया

मेवाड़-मारवाड़ के बीच टकराव : मेवाड़ के जैत्रसिंह मेवाड़ को छोड़कर मारवाड़ चले गये जहां मालदेव राठौड़ ने उन्हें अपने राज्य में एक जागीर बलात खैरवा का जागीरदार बना दिया। इससे प्रसन्न होकर जैत्रसिंह ने अपनी बड़ी पुत्री स्वरूपदे का विवाह मालदेव राठौड़ से कर दिया। राव मालदेव झाली रानी स्वरूपदे सहित अपने ससुराल खैरवा गए, जहां उन्होंने जैत्रसिंह की दूसरी पुत्री वीरबाई झाली को देखकर जैत्रसिंह से कहा कि “इसका भी ब्याह हमारे साथ करवा दो” जिसे जैत्रसिंह ने अपना अपमान समझा और अपनी छोटी पुत्री का विवाह मेवाड़ के शासक उदयसिंह से कर दिया। इसी बात को लेकर मालदेव ने कुंभलगढ़ पर आक्रमण कर दिया, पर दुर्ग की मज़बूती के कारण एक महीने के पड़ाव के बावजूद अधिकार नहीं कर पाए।

अकबर और उदयसिंह : बदायूँनी और अबुलफजल के अनुसार यहाँ का महाराणा न केवल अपनी ही स्वतन्त्रता को थामे हुए था, बल्कि अन्य शासकों को भी बचाये रखने के लिए प्रेरित करता रहता था। बूँदी, सिरोही, डूंगरपुर आदि उसके निकटतम सहयोगी थे। मालवा के बाजबहादुर ने 1562 ई. में राणा की शरण ली थी। मेड़ता के जयमल को, जिसे शर्फउद्दीन हुसैन ने परास्त किया था, राणा ने चित्तौड़ में आश्रय दे रखा था। उदयसिंह के ये ढंग सीधे मुगल सत्ता को चुनौती दे रहे थे। इस परिस्थिति में अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण करना आवश्यक हो गया।

मुगल-मेवाड़ युद्ध का तात्कालिक कारण : अकबरनामा व अमरकाव्य वंशावली के अनुसार एक दिन अकबर ने हँसी में धौलपुर के मुकाम पर, राणा के पुत्र शक्तिसिंह को, जो राणा से अप्रसन्न होकर मुगल सेवा में रहता था, सुनाकर यह कहा कि बड़े-बड़ जमींदार उसके अधीन हो गये, परन्तु राणा उदयसिंह अब तक नहीं हो पाया है। इससे शक्तिसिंह ने चित्तौड़ पर किये जाने वाले आक्रमण संकेत प्राप्त कर लिया। वह बिना कहे ही मुगल खेमे से चल दिया और चित्तौड़ पहुंच कर अकबर के विचारों की सूचना महाराणा को दे दी। महाराणा ने सभी सरदारों को बुलाकर इस संबंध में मन्त्रणा की। इसके द्वारा यह निश्चिय किया गया कि जयमल मेडतिया और फत्ता सिसोदिया पर तो चित्तौड़ की रक्षा का भार रखा जाये और स्वयं राणा नवस्थापित राजधानी उदयपुर और उसके आस-पास वाली गिरवा की बस्तियों की रक्षा करे। प्रबन्ध के उपरान्त महाराणा उदयसिंह ने रावत नेतसी आदि कुछ सरदारों सहित गिरवा की ओर प्रस्थान किया। वीरविनोद के अनुसार राणा द्वारा चित्तौड़ छोड़ने की घटना को लगभग हमारे समय के सभी लेखकों ने राणा की कायरता बताया है। कर्नल टॉड ने तो यहाँ तक लिखा है कि यदि सांगा और प्रताप के बीच में उदयसिंह न होता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल होते। परन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा राणा उदयसिंह को कायर या दोषी नहीं मानते क्योंकि उदयसिंह ने बनवीर, मालदेव, हाजी खान पठान आदि के विरूद्ध युद्ध लड़कर अदम्य साहस का परिचय दिया।

चित्तौड़ के घेरे और पतन की घटनाएँ: अकबर माण्डलगढ़ के मार्ग से 23 अक्टूबर, 1567 ई. को चित्तौड पहुँचा। अबकर ने चित्तौड़ में तीन स्थानों काबरा, नगरी और पांडोली पर अपना शिविर लगाया। और सुरजपोल के सामने अपना तोपखाना लगाया। तोपखाने की अध्यक्षता शुजात खां, कासिम खां और टोडरमल ने की। हुसैन कुलीखाँ राणा का पीछा करने वाले दल का नेता था। वह चारों ओर घूमकर कोरे हाथ लौटा, क्योंकि राणा ने अपने परिवार को तो गिरवा की पहाड़ियों में सुरक्षित छोड़ा था और वह स्वयं राजपीपला से लेकर बाहरी गिरवा में संगठन के लिए घूमता-फिरता था। अकबर ने तीन मोचों पर साबात तथा सुरंगे लगाने का आदेश दिया। दो सुरंगों में से एक में 120 मन बारुद और दूसरे में 80 मन बारुद भरकर उड़ायी गयी। इन सुरंगों ने दोनों ओर के बुजर्गों को बड़ी क्षति पहुँचायी और दोनों पक्षों के सैनिक भी हताहत हुए। अकबर से युद्ध में जयमल और कल्ला राठौड़ हनुमानपोल व भैरवपोल के बीच और रावत व पत्ता सिसोदिया रामपोल के भीतर वीरगति को प्राप्त हुए व राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया। यह चित्तौड़ दुर्ग का ‘तृतीय साका’ था।

25 फरवरी, 1568 को अकबर ने किले पर अधिकार कर लिया। जयमल और पत्ता की वीरता पर मुग्ध होकर अकबर ने आगरा जाने पर हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण की मूर्तियाँ बनवा कर किले के द्वार पर खड़ी करवाई। चित्तौड़ के भीषण नरसंहार के लिए अकबर का नाम आज भी कलंकित है।

चित्तौड़ पतन की घटना के बाद महाराणा अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। जब वह कुम्भलगढ़ से, जहाँ वह बहुधा रहता था, गोगुन्दा आया तो दशहरे के बाद वह बीमार पड़ा और वहीं गोगुन्दा में 28 फरवरी, 1572 ई. में उसका देहान्त हो गया। वहाँ उसकी छतरी बनी हुई है।

राणा प्रताप (1572-1597 ई.)

राणा उदयसिंह के 20 रानियाँ व 25 पुत्र थे। प्रतापसिंह राणा उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था। प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. (ज्येष्ठ शुक्ल 3, विक्रम संवत 1597) रविवार को कुम्भलगढ़ के प्रसिद्ध ‘बादल महल’ में हुआ। राणा प्रताप जैवन्ता बाई (पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री) तथा राणा उदयसिंह का पुत्र था। वह इस पहाड़ी भाग में ‘कीका’ नाम से सम्बोधित किया जाता था जो स्थानीय भाषा में ‘छोटे बच्चे’ का सूचक है। 17 वर्ष की उम्र में प्रताप का विवाह रामरख पंवार की पुत्री अजबदे के साथ हुआ, जिससे कुंवर अमरसिंह का जन्म हुआ। मालदेव के ज्येष्ठ पुत्र राम की पुत्री फूलकवर का विवाह भी राणा प्रताप से हुआ। प्रताप ने अपने पिता के साथ जंगलों, घाटियों और पहाड़ों में रहकर कठोर जीवन बिताया था। उसके पिता ने भटियाणी रानी धीर बाई पर विशेष अनुराग होने से उनके पुत्र जगमाल को अपना युवराज बनाया था, जबकि अधिकार प्रताप का था। जब उदयसिंह का देहांत हुआ तो रानी के आग्रह से तथा कुछ सरदारों के सहयोग से जगमाल का राजतिलक कर दिया गया। दाह संस्कार में जगमाल की अनुपस्थिति का कारण जानकर ग्वालियर के शासक रामशाह/रामसिंह और जालौर के शासक सोनगरा अखैराज चौहान ने उत्तराधिकार के निर्णय पर प्रश्न उठाया और कहा की उदयसिंह का निर्णय सही नहीं था। ज्येष्ठ कुंवर प्रतापसिंह ही सब प्रकार से सुयोग्य है, अधिकारी है, अतः वह महाराणा होगा। रावत कृष्णदास और ग्वालियर के भूतपूर्व राजा रामशाह तंवर ने जगमाल को सिंहासन से उठाकर प्रताप को सिंहासन पर आसीन किया। गोगुन्दा में महादेव बावड़ी राणा प्रताप का 32 वर्ष की आयु में 28 फरवरी, 1572 को राज्याभिषेक किया गया। होली के त्यौहार के दिन महाराणा उदयसिंह के देहान्त के कारण त्यौहार की औख (शोके) नहीं रहे, उसके निवारणार्थ तत्कालीन परिपाटी के अनुसार प्रताप ‘अहिड़ा की शिकार’ करने गया। प्रताप कुछ समय के बाद कुम्भलगढ़ चला गया जहां राज्याभिषेक का उत्सव मनाया गया। इस पर जगमाल अप्रसन्न होकर अकबर के पास पहुँचा, जिसने उसे पहले जहाजपुर और सिरोही की आधी जागीर दे दी। सिरोही में ही 1583 ई. में दताणी के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी। प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर 25 वर्षों (फरवरी, 1572-जनवरी, 1597 ई.) तक शासन किया।

राणा प्रताप और अकबर : इस समय मुगली प्रभाव बढ़ रहा था। अपने कर्तव्य और विचारों से प्रताप ने सामन्तों और भीलों का एक गुट पूंजा भील के नेतृत्व में बनाया जो हर समय देश की रक्षा के लिए उद्यत रहे। उसने प्रथम बार इन्हें अपनी सैन्य-व्यवस्था में उच्च पद देकर उनके सम्मान को बढ़ाया। मुगलों से अधिक दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए उसने गोगुन्दा से अपना निवास स्थान कुम्भलगढ़ में बदल लिया।

अकबर द्वारा राणा के पास भेजे गए चार शिष्ट मण्डल -

अकबर ने अपनी गुजरात विजय के बाद अपने मनसबदार जलाल खाँ कोरची को राणा प्रताप के पास इस आशय से भेजा कि वह (राणा) अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले। राणा प्रताप ने शिष्टता के साथ इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। अकबरनामा और इकबालनामा के अनुसार जब मानसिंह गुजरात से लौट रहा था तो उसे आदेश दिया गया कि वह उदयपुर जाकर राणा प्रताप को समझाये कि वह अकबर की सर्वोपरि शक्ति को मान्यता दे और शाही दरबार में उपस्थित हो। मानसिंह के नेतृत्व में भेजे गये शिष्टमण्डल में शाहकुलीखां, जगन्नाथ, राजा गोपाल, बहादुर खां, लश्कर खां, जलाल खां व भोज आदि सम्मिलित थे। गोपीनाथ शर्मा ने मत प्रकट किया है कि राणा प्रताप और कुंवर मानसिंह की भेंट गोगुन्दा में हुई थी। ‘अमरकाव्यम्’ में तो स्पष्ट तौर पर लिखा हुआ है कि प्रताप ने मानसिंह का आतिथ्य उदयसागर की पाल पर किया था। सभी आधुनिक इतिहासकारों ने मानसिंह-प्रताप वार्ता उदयपुर में ही होने की पुष्टि की है। उल्लेख मिलता है कि प्रताप ने मानसिंह को सेना सहित भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन के समय राणा प्रताप जब उपस्थित नहीं हुआ तब मानसिंह ने लोगों से प्रताप के न आने का कारण पूछा। धीमी आवाज में किसी ने कहा कि प्रताप अपने को उच्च कुल का क्षत्रिय मानता आपके साथ बैठकर प्रताप भोजन करने के पक्ष में है और आपका संबंध यवनों से है, अतः नहीं है। मानसिंह के चले जाने के पश्चात् प्रताप ने पाकशाला को गंगाजल से धुलवाया और शास्त्रोक्त तरीके से उसे पवित्र किया। मानसिंह को जब इसकी सूचना मिली तो वह बड़ा क्रुद्ध हुआ और उसने अकबर को राणा के विरुद्ध उकसाया। उसने प्रताप को चुनौती भरा पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि ‘आपने पवित्रता से जिस तरह क्षत्रियत्व को कायम रखा है उसको रणभूमि में दिखावे’ अकबर के आदेश से वह शाही सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ आया।

इसके बाद इसी आशय से दो और पैगाम महाराणा के पास भगवन्तदास तथा टोडरमल के नेतृत्व में भेजे गये, परन्तु पहले की भाँति वे भी विफल रहे।

हल्दीघाटी (राजसमंद) का युद्ध (18 जून, 1576) : हल्दीघाटी के युद्ध को कर्नल टाॅड ने मेवाड़ की थर्मोपल्ली, अबुल फजल ने खमनौर का युद्ध और बदायूंनी ने मुंतखाब-उल-तवारीख में गोगुंदा का युद्ध कहा है। प्रताप ने जब अकबर की एक भी बात न मानी तो वह भी ताड़ गया कि इसकी प्रतिक्रिया उसके राज्य के लिए भयंकर परिणाम ला सकती है। यह समझते हुए उसने पूँजा को अपने भील सहयोगियों के साथ बुलाकर मेवाड़ की सुरक्षा प्रबन्ध में लगाया। जिस भूमि पर प्रताप अपना नियंत्रण नहीं रख सका वहां उसने ‘स्वभूमिध्वंस की नीति’ का अनुसरण किया (स्कॉर्चड् अर्थ पॉलिसी)। प्रताप ने मेवाड़ के केद्रीय उपजाऊ भाग की जनता को कुम्भलगढ़ और कंलवाड़ा की ओर पहाड़ी क्षेत्र में जाने के आदेश दिये जिससे भीतरी गिर्वा और मुगल अधीन मेवाड़ के बीच के भृखण्ड में यातायात के साधन, खाद्य पदार्थ एवं घास उपलब्ध न हो सके। मेवाड़ के हरे-भरे भाग को तहस-नहस इसलिए करवाया गया ताकि शत्रु-दल इसका उपयोग न कर सके।

ख्यातों के अनुसार मानसिंह के अधीन 80,000 सैनिक और प्रताप के पास 20,000 सैनिक थे। नैणसी के अनुसार मानसिंह के पास 40,000 सैनिक और प्रताप के पास 9-10 हजार सैनिक थे। युद्ध में उपस्थित इतिहासकार बदायूँनी के अनुसार मानसिंह की सेना में 5,000 सैनिक तथा प्रताप की सेना में 3,000 घुड़सवार थे। मान्यतानुसार दोनों की सेना का अनुपात 4:1 (80,000/20,000) था। अबुल फजल एवं बदायूँनी के अनुसार 3 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह अजमेर से रवाना होकर माण्डलगढ़, मोही आदि मुकामों से गुजरता हुआ खमनौर के पास मोलेला गाँव में जा टिका। प्रताप ने भी लोहसिंह में अपने डेरे डाले। अकबर की ओर से सेनानायक कुँवर मानसिंह कच्छवाहा एवं राणा प्रताप की ओर से पठान हाकिम खाँ सूर थे। मुगल इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी हिन्दू को इतनी बड़ी सेना का सेनापति बना कर भेजा गया था। मुगल सेना में हरावल (सेना का सबसे आग वाला भाग) का नेतृत्व सैयद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद बादख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खां थे। प्रताप की सेना के हरावल में हकीम खां सूरी, अपने पुत्रों सहित ग्वालियर का रामशाह, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारण जैसा, पुरोहित जगन्नाथ, सलम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास आदि शामिल थे। 18 जून, 1576 ई. को प्रातः युद्ध भेरी बजी। पहला वार इतना जोशीला था कि मुगल सैनिक चारों ओर जान बचाकर भाग गये। बदायूँनी, जो मुगल दल में था और जिसने इस युद्ध का आँखों देखा हाल लिखा है, स्वयं भाग खड़ा हुआ। मुगलों की आरक्षित फौज के प्रभारी मिहत्तर खां ने यह झूठी अफवाह फैला दी की ‘बादशाह अकबर स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे हैं।’ अकबर के सहयोग की बात सुनकर मुगल सेना की हिम्मत बंधी। अपने पहले मोरचे में सफल होने के बाद भावावेश मेवाड़ी सेना ने पहाड़ों से उतर कर बनास नदी के काँठ वाले मैदान में, जिसे रक्त ताल कहते हैं, आ जमे। रामशाह तंवर जैस अनुभवी सामन्तों की सलाह थी कि शत्रु से खुले मैदान में लड़ाई नहीं लड़ी जाये। यहाँ दोनों दल बारी-बारी से भिड़ गये। सभी ओर से योद्धाओं की हलचल से भीड़ एसी मिल गयी कि शत्रु सेना के राजपूत और मुगल सेना के राजपूतों को पहचानना कठिन हो गया। इस समय बदायूँनी ने आसफखाँ से पूछा कि ऐसी अवस्था में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे करें ? उसने उत्तर दिया कि तुम तो अपना वार करते जाओ, चाहे जिस पक्ष का भी राजपूत मारा जाये, इस्लाम को हर दशा में लाभ होगा।

राणा ने अपने दो युद्धरत हाथियों “लूना एवं रामप्रसाद” को युद्ध करने का आदेश दिया। प्रताप की सेना में खांडराव और चक्रवाप नामक हाथी भी थे। इस युद्ध में कवचधारी एवं अपनी सूण्डों में जहरीले खंजर लिए हुए तथा पूंछों में धारदार तलवारें लिए हुए लूना और रामप्रसाद शत्रु की सेना को चीरते हुए आगे बढ़ रहे थे। मुगलों ने लूना के विरूद्ध जो केन्द्र की ओर बढ़ रहा थ अपने हाथी “गज-मुक्ता” (गजमुख) मैदान में उतार दिया। इतने में ही लूना के महावत के सिर में गोली मार दी गई। रामप्रसाद दाहिने हरावल की ओर तेजी से आगे बढ़ा दूसरी और दो मुगल हाथी “गजराज एवं रन-मदार” (Ran-Aadar) आगे बढ़े तथा हाथियों में खूनी संघर्ष शुरू हुआ। इससे पहले की खूनी संघर्ष पूरा होता रामप्रसाद के महावत को भी गोली मार दी गई। एक मुगल महावत ने रामप्रसाद की पीठ पर सवार होकर उसे नियंत्रण में ले लिया।

प्रताप शत्रु दल को चीरता हुआ मानसिंह के हाथी के पास पहुँच गया। मानसिंह अपने हाथी “मर्दाना” के होदे पर बैठा था। राणा के चेतक ने मानसिंह के हाथी पर अगले पैर रखे तथा प्रताप ने अपने भाले का वार किया जो मानसिंह के हाथी पर बैठे महावत के शरीर को पार कर हौदे को पार कर गया, इस वार को मानसिंह बचा गया। मानसिंह हौदे में छुप गया। प्रताप ने सोचा की मानसिंह मर गया। लेकिन महावत विहीन हाथी ने अपने खंजर से चेतक का एक पैर काट दिया। प्रताप को शत्रु सेना ने घेर लिया। लेकिन प्रताप ने संतुलन बनाए रखा तथा अपनी शक्ति का अभृतपूर्व प्रदर्शन करते हुए मुगल सेना में उपस्थित बलिष्ठ पठान बहलोल खां के वार का ऐसा प्रतिकार किया कि खान के जिरह बख्तर सहित उसके घोड़े के भी दो फाड़ हो गए। राणा के युद्ध क्षेत्र से हटने से पूर्व सादड़ी का झाला बीदा राणा के सिर से छत्र खींचकर स्वयं धारण कर मानसिंह के सैनिकों पर झपट पड़ा और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। टूटी टाँग के घोड़े से राणा अधिक दूर नहीं पहुँचा था कि मार्ग में ही घाटी के दूसरे नाके के पास चेतक की मृत्यु हो गयी। राणा ने उसके अन्तिम संस्कार द्वारा अपन प्यारे घोड़े को श्रद्धांजलि अर्पित की। बलीचा नामक स्थान पर आज भी चेतक की समाधि उपस्थित है। इस घटना के साथ बताया जाता है कि शक्तिसिंह भी जो मुगल दल के साथ उपस्थित था, किसी तरह बचकर जाते हुए राणा के पीछे चल दिया। उसी समय ‘ओ नीला घोड़ा रा असवार’ शब्द राणा ने सुने। प्रताप ने सिर उठाकर देखा तो सामने उसके भाई शक्तिसिंह को पाया। शक्तिसिंह ने अपनी करनी पर लज्जित होकर बड़े भाई के चरण पकड़ कर क्षमा याचना की। इसकी जानकारी हमें ‘अमर काव्य वंशावली ग्रंथ व राजप्रशस्ति’ से मिलती है। राणा के साथ ही उसकी बची सेना कोल्यारी पहुंची। घायलों का वहां उपचार किया गया। रणक्षेत्र से बचने वालों में सलूम्बर का रावत कृष्णदास चूडावत, घाणेराव का गोपालदास, भामाशाह, ताराचन्द आदि प्रमुख थे। उधर मुगल सेना ने डर के कारण प्रताप की सेना का पीछा नहीं किया। बदायूंनी ने इसके तीन प्रमुख कारण बताए हैं। एक तो प्रचण्ड गर्मी। उसने लिखा कि उस समय ऐसी गर्मी थी कि दिमाग पिघल जाए। दूसरा कारण मुगल सेनाएं इतनी थक चुकी थी कि उनमें अब लड़ने का साहस व सामर्थ्य नहीं बचा था। तीसरा मुख्य कारण था कि उन्हें इस बात का डर था कि प्रताप की सेना घात लगाए बैठी होगी और पीछा करते हुए अचानक आक्रमण हुआ तो कोई जीवित नहीं बच सकेगा। अत: प्रताप का पीछा करने की बजाय अपने शिविर में लौट जाना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा। इस प्रकार हल्दीघाटी का युद्ध दोपहर तक ही समाप्त हो गया। इस बीच राणा पूंजा के नेतृत्व में भीलों ने मुगलों के शिविर पर आक्रमण कर दिया था। सारी खाद्य सामग्री लूट ली। मुगल शिविर की स्थिति इतनी खराब हो गई कि सैनिकों को खाने के लाले पड़ने लगे। घायल सैनिकों की सेवा सुश्रुषा तथा युद्ध की समीक्षा करने के बजाय उनके लिए जीवित सैनिकों के खाने की चिंता करना आवश्यक हो गया। प्रताप की सेना के भय के कारण शिविर में रात बिताना भी उनके लिए भारी हो गया और इसलिए वे दूसरे दिन प्रात:काल गोगुन्दा के लिए रवाना हो गये। वहां भी सैनिकों को प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। मेवाड़ की सेना के अचानक आक्रमण को रोकने के लिए जगह-जगह आड़ खड़ी की गईं। शिविर के पास दीवारें इतनी ऊंची बनाई गई ताकि घुड़सवार उनको फांद न सके। उनको एक तरह से कैदी जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ा। प्रताप ने उनके रसद मार्ग को भी काट दिया। सैनिक खाद्य सामग्री के अभाव में अपने जानवरों को मारकर उदरपूर्ति कर रहे थे। इसका असर सैनिकों के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा। गोगुन्दा को खाली करने के अतिरिक्त मुगलों के पास अन्य कोई विकल्प नहीं रहा। जैसे ही मुगलों की सेना गोगुन्दा से हटी, महाराणा ने पुन: गोगुन्दा को अधीन कर लिया। बदायूँनी ने बादशाह को रामप्रसाद हाथी और युद्ध की रिपोर्ट प्रेषित की। बादशाह ने हाथी का नाम रामप्रसाद से बदल कर पीरप्रसाद रखा। इस प्रकार युद्ध का पटाक्षेप हुआ।

अकबर का यह सैन्य अभियान असफल रहा तथा पासा महाराणा प्रताप के पक्ष में था। युद्ध के परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खां की कुछ दिनों के लिये ड्योढ़ी बंद कर दी अर्थात् उनको दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।

हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की नहीं वरन् महाराणा प्रताप की विजय हुई। यह दावा राजस्थान सरकार द्वारा किया गया है। इसके पीछे सरकार ने राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय में उदयपुर में मीरा महाविद्यालय के प्रो. इतिहासकार डॉ. चंद्रशेखर शर्मा के शोध का हवाला दिया है। उनके अनुसार युद्ध के बाद अगले एक साल तक महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के आस-पास के गांवों की जमीनों के पट्टे ताम्रपत्र के रूप में जारी किये गए थे। जमीनों के पट्टे जारी करने का अधिकार केवल राजा का था।

जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक ‘अनाल्स एण्ड एंटीक्यूटीज ऑफ राजस्थान’ में प्रथम बार इस युद्ध को हल्दीघाटी के नाम से संबाधित किया, तब से यह लड़ाई हल्दीघाटी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हो गई। कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को मेवाड़ की ‘थर्मोपल्ली’ तथा प्रत्येक नगर क लड़ाको को ‘लियोनिडास’ कहा है।

थर्मोपइले (थर्मोपल्ली) का युद्ध

यह युद्ध फारस एवं यूनान के मध्य 480 ई. पू. में यूनान में फारसी सेनानायक जरेक्सस की विशाल सेना एवं यूनानी सेनानायक लियोनीडास के 300 सैनिकों के मध्य थर्मोपल्ली नामक तंग दर्रे में लड़ा गया। परन्तु यूनानी एपियाल्टीज के विश्वासघात के कारण यूनान इस युद्ध में हार गया। लियोनीडास एवं उसके वीर सिपाहियों ने अप्रतिम वीरता का परिचय दिया और स्वदेश की रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दी। इसी प्रकार हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप और उसके सैनिकों के साहस और बलिदान की कहानी भारतीय जनमानस के दिलोदिमाग में छा गई और एक प्रेरणा का स्त्रोत बन गई।

13 अक्टूबर. 1576 ई. को अकबर स्वयं भी गोगुन्दा आया। अकबर प्रताप को बंदी बनाने में असफल रहा और उसे खाली हाथ ही लौटना पड़ा। लेकिन अकबर ने लौटने से पहले मेवाड़ के प्रमुख क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया और गोगुन्दा अपने अधिकार में लेकर मुजाहिद बेग को इसकी देखरेख के लिए नियुक्त कर दिया। लेकिन अकबर के जाने के बाद प्रताप ने मुजाहिद बेग की हत्या कर गोगुन्दा पुनः अपने अधिकार में ले लिया।

अकबर ने अक्टूबर, 1577 को शाहबाज खान के नेतृत्व में राणा प्रताप को पकड़ने के लिए शाही सेना भजी, लेकिन वह सफल नहीं हो सका।

कुम्भलगढ़ का युद्ध (1578 ई.) : हल्दीघाटी के रण क्षेत्र से प्रताप भोमट क्षेत्र में कोल्यारी ग्राम की ओर प्रस्थान कर गया था। कोल्यारी ग्राम के निकट कमलनाथ पर्वत पर स्थित आवरगढ़ में प्रताप ने अपनी अस्थायी राजधानी स्थापित की थी। मुगल फोज के लौट जाने के बाद प्रताप ने गोगुन्दा पर अधिकार स्थापित कर लिया और वहां मांडण कूंपावत को शासक नियुक्त किया। इसके पश्चात् राणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ को अपना केन्द्र (राजधानी) बनाकर मुगल स्थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर अकबर ने (अक्टूबर 1577 ई.) शाहबाज खाँ के नेतृत्व में एक सेना मेवाड़ की ओर भजी। शाहबाज खाँ ने 1578 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया। लम्बे समय तक उसने कुम्भलगढ़ पर आकमण जारी रखा। रसद की कमी होने पर प्रताप किले का भार मानसिंह सोनगरा को सौंपकर पहाड़ों की ओर निकल गया। अंत में भीषण संघर्ष के बाद 3 अप्रैल, 1578 को शाहबाज खाँ ने कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार कर लिया। वर्ष 1578 एवं 1579 में शाहवाज खाँ ने दो बार और मेवाड़ पर आक्रमण किया, लेकिन वह असफल रहा। मई 1580 ई. में शाहबाजखां मेवाड़ छोड़ कर चला गया तब राणा पुनः मेवाड़ चला आया।

1580 में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को मेवाड़ अभियान पर भेजा, लेकिन वह भी सफल नहीं हो सका। जब कु. अमरसिंह ने शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर अब्दुल रहीम खान-खाना के परिवार की महिलाओं को पकड़ लिया और इसकी सूचना प्रताप को मिली तो उसने अमरसिंह को आदेश भेजा कि खान-खाना का परिवार तुरन्त मुक्त कर दिया जाय। खान-खाना इस उदारता से द्रवित हो गया।

जब महाराणा प्रताप इधर से उधर सुरक्षा की खोज में भाग रहे थे तथा उनके पास धन का भी अभाव होने लगा। इसी समय (1578 ई. में) ‘चूलिया ग्राम’ में राणा को उसका मंत्री भामाशाह मिला। भामाशाह उसके भाई ताराचन्द ने पच्चीस लाख रुपय एवं बीस हजार अशर्फियां राणा को भेंट की। भामाशाह की सैनिक एवं प्रशासनिक क्षमता को देखकर प्रताप ने इसी समय रामा महासहाणी के स्थान पर उसे मेवाड़ का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। जिससे राणा ने 25 हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वाह किया। इसलिए भामाशाह को ‘दानवीर’ और ‘मेवाड़ का उद्धारक’ कहा जाता है।

इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा इस बात का खंडन करते हैं की भामाशाह ने अपनी निजी संपत्ति प्रताप को दी होगी। ओझा के अनुसार युद्ध के समय राजकीय खजाने को छुपाकर रखा जाता था। तो संभवतय भामाशाह के द्वारा राजकीय खजाने को छीपा दिया गया होगा और जब आवश्यकता पड़ी तो उस खजाने को लाकर महाराणा प्रताप को सौंपा गया होगा।

पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाली आदिवासी भील जाति का प्रताप को बड़ा सहयोग मिला। भीलों ने गुप्तचरों व संदशवाहकों का कार्य भी किया था। प्रताप का कोष, शस्त्र और खाद्यान्न कन्दराओं में सुरक्षित थे। हल्टीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली का उपयोग किया था। राणा की स्वभूमिध्वंस नीति से शत्रुओं की परेशानियां बढ़ी। उपर्युक्त कारण से मुगल सैनिक मेवाड़ पर स्थायी अधिकार रखने में असफल रहे। महाराणा प्रताप न बड़ी सूझ-बूझ के साथ चावंड को अपनी राजधानी बनाया था। वहां पहुंचने का मार्ग बड़ा दुर्गम एवं विकट था। वहां पर शत्रुओं का आकस्मिक आक्रमण हाने का भय नहीं था और शत्रु के प्रवंश को रोकना आसान था।

दिवेर का युद्ध/मेवाड़ का माराथन (अक्टूबर, 1582) : ‘अमरकाव्य’ के अनुसार 1582 ई. में राणा प्रताप ने मुगलों के विरुद्ध दिवेर (कुंभलगढ़) पर जबरदस्त आक्रमण किया। यहाँ का सूबेदार अकबर का काका सेरिमा सुल्तान खां था। जब कुंवर अमरसिंह ने अपना भाला सेरिमा सुल्तान पर मारा तो भाला सेरिमा के लोहे के बख्तर को चीरते हुए उसके शरीर में प्रवेश कर पार हो गया। यह देख बाकी मुगल सेना भाग खड़ी हुई। दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई। इसके बाद प्रताप ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और मेवाड़ को मुगलों से मुक्त करा लिया। कर्नल टॉड ने इस युद्ध को ‘प्रताप के गौरव का, प्रतीक’ माना और ‘माराथन’ की संज्ञा दी।

मेराथन/माराथन का युद्ध

यह युद्ध फारसी सेनानायक हिप्पियस एवं एथेंस के सेनानायक मिल्टिएड्स के मध्य 490 ई.पू. में यूनान के माराथन नामक स्थान पर हुआ। एथेंस ने जब स्पार्टा से सहायता मांगी तो धार्मिक अनुष्ठान में व्यस्त हाने कं कारण स्पार्टा न आ सका। एथेंस की सना ने अकले ही माराथन की आर प्रस्थान किया। मात्र 10 हजार सनिकों के बल पर एथेंस ने बिना स्पार्टा की सहायता के विशाल फारसी सेना को मार भगाया और युद्ध में अप्रत्याशित ढ़ंग से विजय प्राप्त की। एथेंस ने अकले ही यह विजय प्राप्त कर यूनानी जगत में अभूतपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त की। इसी प्रतिष्ठा के बल पर आगे चलकर एथेंस साम्राज्य की स्थापना हुई।

5 दिसम्बर, 1584 को कछवाह जगन्नाथ के नतृत्व में एक सशक्त सेना मेवाड़ भेजी गयी। जगन्नाथ कछवाहा को भी सफलता नहीं मिली अपितु उसकी मांडलगढ़ में मृत्यु हो गई। जहां पर महाराणा प्रताप ने बदला लेने के लिए आमेर के क्षेत्र पर आक्रमण कर मालपुरा को लूटा व झालरा तालाब के निकट शिव मंदिर ‘नीलकण्ठ महादेव’ का निर्माण करवाया।

सन् 1585 के बाद अकबर ने मेवाड़ पर कोई आक्रमण नहीं किया। राणा ने पहले गोगुन्दा फिर कुंभलगढ़ को तत्पश्चात् चावण्ड का अपनी आपातकालीन नई राजधानी बनाया। महाराणा प्रताप ने 1585 ई. में चावंड के शासक लूणा को परास्त कर चावंड को अपनी राजधानी बनाया। यह नगर अमरिसिंह के काल में 1614 ई. तक मेवाड़ मेवाड़ राज्य की राजधानी रहा। जहाँ अनेक महल चामुण्डा मंदिर आदि का निर्माण किया। रहा। महाराणा प्रताप ने अपने अंतिम समय में केवल चित्तौड़ और मांडलगढ़ को छोड़कर मेवाड़ के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। अन्त में पाँव में किसी असावधानी से कमान से लग जाने से वह अस्वस्थ हो गया। 19 जनवरी, 1597 ई. को चावण्ड में 57 वर्ष (9 महीने, 56 वर्ष) की आयु में राणा की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु पर मुगल सम्राट अकबर ने भी शोक प्रकट किया था।

प्रताप का चावण्ड के पास बाण्डोली गाँव के निकट बहने वाले नाले के तट पर अग्नि संस्कार हुआ। खेजड़ बांध के किनारे 8 खम्भों की छतरी उस महान योद्धा की याद दिलाती है।

महाराणा प्रताप को ‘मेवाड़ केसरी’ व ‘हिन्दुआ सूरज’ भी कहा जाता है। प्रताप ने आचार्य हीरविजय सूरिजी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्हें अपने यहां आने का अनुरोध किया था। महाराणा प्रताप के दरबारी पण्डित चक्रपाणि मिश्र ने चार ग्रंथों- विश्ववल्लभ, मूहूर्तमाला, व्यवहारादर्श और राज्याभिषेक पद्धति की रचना की।

महाराणा अमरसिंह प्रथम (1597-1620 ई.)

राणा प्रताप के बाद उनका पुत्र अमरसिंह मेवाड़ का राणा बना। राणा अमरसिंह का राज्याभिषेक 19 जनवरी, 1597 को नई राजधानी चावण्ड में हुआ। महाराणा अमरसिंह के काल को 'राजपूत. काल का अभ्युदय' कहा जाता है। अकबर से राणा अमरसिंह का भी प्रतिरोध जारी रहा। हरिदास झाला को सम्पूर्ण सैन्य संचालन का काम देकर सैन्य शासन का एक अलग विभाग बना दिया। अमरसिंह को अपने राज्य की व्यवस्था में लगे लगभग दो वर्ष ही हुए थे कि अकबर के आदेश से 1599 ई. में मेवाड़ पर सलीम ने आक्रमण कर दिया। इस बार सलीम इस संबंध में अधिक उत्साही नहीं था, अतः वह थोड़े समय उदयपुर जाकर लौट गया। अब राणा ने एक-एक कर मुगल थानों पर आक्रमण करने आरम्भ किये। जब अकबर ने इस प्रकार मुगलों की क्षति के समाचार सुने तो सलीम को 1603 ई. में दुबारा मेवाड़ की ओर जाने को कहा, परन्तु सलीम ने इस बार भी कोई ध्यान नहीं दिया।

जब सलीम 1605 ई. में स्वयं सम्राट बन गया तो उसने अपने पिता की नीति के अनुसरण के आधार पर परवेज, आसिफखाँ, जफरबेग और सगर के साथ 22,000 घुड़सवारों को मेवाड़ अभियान के लिए भेजा। तुजुक-ए-जहाँगीरी के वर्णन से मालूम होता है कि इस बार सम्राट को काई आशाजनक सफलता नहीं मिली। 1608 ई. में उसने महाबतखाँ के नेतृत्व में मेवाड़ की ओर सेना भेजी। महाबतखाँ तंग आकर सगर को चित्तौड़ तथा जगन्नाथ कच्छवाहा को माण्डल में छोड़कर लौट गया। 1609 ई. तथा 1612 ई. में अब्दुल्ला और राजा बासू क्रमशः मेवाड़ के विरुद्ध भेजे गये। इनके प्रयत्न से राणा को चावण्ड और मेरपुर को तो छोड़ना पड़ा, परन्तु छापे मारकर उन्होंने मुगलों की हालत शोचनीय बना दी। जहाँगीर ने नवम्बर, 1613 में मेवाड़ की ओर स्वयं कूंच किया तथा अजमेर में शाही कैम्प लगाया। शाहजादा खुर्रम (बाद में शाहजहाँ) को एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ विजय के लिए भेजा। दो वर्ष की अवधि में खुर्रम ने राणा को चावण्ड के पहाड़ों में जा घेरा और जितने मुगल थाने उनके हाथ से निकल गये थे उन पर फिर से अपना अधिकार स्थापित कर लिया। राज्य की हालत दुष्काल से भी अधिक भयंकर बन गयी। अब तक मेवाड़ युद्धों के कारण जर्जर हो चुका था। अतः सभी सामंतों, दरबारियों एवं कुंवर कर्णसिंह के निवेदन पर राणा अमरसिंह ने अपना मन मारकर मुगलों से 5 फरवरी, 1615 ई. में संधि की। अमरसिंह मुगलों से संधि करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था। संधि वार्ता के लिए मुगलों की ओर से शीराजी एवं सुन्दरदास तथा राणा की ओर से हरिदास झाला एवं शुभकर्ण सम्मिलित हुए। वार्ता दल ने आसान शर्तो पर एक संधि का मसौदा तैयार किया, जिसे मुगल-मेवाड़ संधि कहते हैं।

मुगल-मेवाड़ संधि (1615 ई.)

  1. स्वयं राणा खुर्रम के समक्ष आयेगा और कुँवर कर्ण को मुगल दरबार में भेजेगा।
  2. राणा को मुगल दरबार की सेवा की श्रेणी में प्रवेश करना होगा। परन्तु राणा का दरबार में उपस्थित होना आवश्यक नहीं।
  3. राणा एक हजार घुड़सवारों सहित मुगल सेवा के लिए उद्यत रहेगा।
  4. चित्तौड़ दुर्ग राणा को लौटा दिया जायेगा लेकिन उसकी मरम्मत नहीं करेगा और
  5. राणा वैवाहिक सम्बन्धों के लिए बाध्य नहीं होगा।

इस प्रकार लगभग 1000 वर्षो बाद गुहिल वंश ने अपनी स्वतंत्रता खो दी एवं वे मुगलों के अधीन हो गए। मेवाड़ की प्रजा की दृष्टि से राजकुमार का मुगल दरबार में जाना अपमानसूचक था। महाराणा ने भी इस सन्धि को अपने गौरव के लिए ठीक नहीं माना। उसे इससे इतना पश्चाताप हुआ कि उसने इस सन्धि के बाद राज्य कार्य अपने पुत्र कर्ण को सौंप एकान्तवास किया। 26 जनवरी, 1620 को राणा अमरसिंह का बोझिल मन से उदयपुर में देहान्त हो गया। राणा का अंतिम संस्कार आहड़ (गंगोद्भव) में किया गया। आहड़ में मेवाड़ के राणाओं की छतरियों (महासतियों) में राणा अमरसिंह की छतरी पहली छतरी बनी।

राणा कर्णसिंह (1620-1628 ई.)

अमरसिंह की मृत्यु के बाद कर्णसिंह मेवाड़ का शासक बना। महाराणा कर्णसिंह का जन्म 7 जनवरी, 1584 को और राज्याभिषेक 26 जनवरी, 1620 को हुआ। राज्याभिषेक के उत्सव पर जहाँगीर ने राणा की पदवी का फरमान, खिलअत आदि भेजे। उसने मुगल ढाँचे पर राज्य को परगनों में बाँटा और उनके अन्तर्गत कई गाँव सम्मिलित किये। इन इकाइयों के अधिकारी पटेल, पटवारी और चौधरी नियुक्त किये गये। इन सुधारों से स्थायित्व की भावनाओं को बल मिला और व्यापार तथा वाणिज्य की सुव्यवस्था हो गयी। जब खुर्रम ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया (1622 ई.) तो माना जाता है कि वह पहले कुछ दिन देलवाड़ा की हवेली में ठहरा, फिर जगमंदिर में। तब उसे पिछोला झील के महलों में पनाह देकर और यहाँ से शान्तिपूर्वक माण्डू के मार्ग से दक्षिण भेजकर राणा कर्णसिंह ने अपने संबंधों को खुर्रम से और अच्छा कर लिया। उसका भाई भीम भी खुर्रम के साथ राज्याधिकार युद्ध में सहयोगी बना रहा। जब खुर्रम जहाँगीर की मृत्यु होने पर सम्राट बनने आगरा जा रहा था तब कर्ण ने उसका गोगुन्दा में स्वागत किया और उसकी यात्रा के लिए सुरक्षा का प्रबन्ध अपनी सीमा में कर दिया। कर्णसिंह इस घटना के बाद अस्वस्थ हुआ और उसकी 1628 ई. में मृत्यु हो गयी। कर्णसिंह ने निर्माण कार्य में भी विशेष रूप से कर्ण विलास, दिलखुश महल, बड़ा दरीखना आदि में मुगल स्थापत्य की विशेषताओं को स्थान देकर सामंजस्य की भावना को स्वीकार किया। महाराणा कर्णसिंह ने जगमंदिर महलों को बनवाना शुरु किया, जिसे उनके पुत्र महाराणा जगतसिंह प्रथम ने समाप्त किया। इसी से ये महल जगमंदिर कहलाते हैं।

महाराणा जगतसिंह प्रथम (1628-1652 ई.)

कर्णसिंह के बाद उसका पुत्र जगतसिंह-प्रथम महाराणा बना। महाराणा जगतसिंह के काल में जब देवलिया-प्रतापगढ़ के शासक जसवन्तसिंह ने मेवाड़ के प्रभाव को अपने राज्य से हटाने का प्रयत्न किया तो राणा ने जसवन्त तथा उसके लड़के मानसिंह को उदयपुर बुलाकर किसी गुप्त रीति से मरवा दिया। जब इस घटना का शाहजहां को पता चला तो उसने प्रतापगढ़ मेवाड़ से अलग कर दिया। महाराणा का स्वर्गवास 10 अप्रैल, 1652 ई. को हुआ।

जगतसिंह ने चित्तौड़ की मरम्मत करवाकर अपने वंश गौरव के प्रतीक को बचाये रखने की ख्याति अर्जित कर ली और अपनी सुरक्षा व्यवस्था के साधन को भी बढ़ा लिया। जगन्नाथराय/जगदीश का उदयपुर में मन्दिर बनाकर तथा अनेक अन्य मन्दिरों को बनवाकर तथा जगमन्दिर और उदयसागर के महलों को बनवाकर राणा ने निर्माण कार्य के लिए अपनी रूचि का परिचय दिया। जगदीश मंदिर के पास वाला धाय का मंदिर महाराणा की धाय नौजूबाई द्वारा बनवाया गया।

उसने जगन्नाथ राय (जगदीश विष्णु) का भव्य पंचायतन मंदिर बनवाया। यह मंदिर अर्जुन की निगरानी और सूत्रधार (सुथार) भाणा और उसके पुत्र मुकुन्द की अध्यक्षता में बना। इस मंदिर की विशाल प्रशस्ति जगन्नाथ राय प्रशस्ति की रचना कृष्णभट्ट ने की। महाराणा ने पिछोला में मोहनमंदिर और रूपसागर तालाब का निर्माण कराया। जगमंदिर में जनाना महल आदि बनवाकर उसका नाम अपने नाम पर ‘जगमंदिर’ रखा।

महाराणा राजसिंह प्रथम (1652-1680 ई.)

अपने पिता जगतसिंह की मृत्यु के बाद राजसिंह मेवाड़ का स्वामी बना। महाराणा जगतसिंह के पुत्र राजसिंह का राज्याभिषेक 10 अक्टूबर, 1652 को हुआ। सम्राट शाहजहाँ ने गद्दीनशीनी के समय उसके लिए राणा का खिताब, पाँच हजारी जात और पाँच हजार सवारों का मनसब देकर जड़ाऊ जमधर हाथी, घोड़ा आदि भेजे। अपने पिता के द्वारा आरम्भ किये गये चित्तौड़ की मरम्मत के कार्य को उसने सबसे पहले पूरा करवाने का प्रयत्न किया। जगतसिंह के समय तो बादशाह ने उसे किसी तरह गवारा किया था, परन्तु ज्योंही इस काम में तीव्रता लायी गयी, मुगल सम्राट उसको सहन न कर सका। उसने 30,000 सेना के साथ सादुल्लाखाँ को चित्तौड़ की दीवारों को ढहाने के लिए भेजा। सादुल्लाखाँ ने तुरन्त किले के कँगूरे तथा बुर्जो को गिरा दिया और 15 दिन वहाँ रहकर वह बादशाह के पास लौट गया। इसी समय मुंशी चन्द्रभान को मेवाड़ के साथ समझौते के लिए भेजा। जिसने राणा को दक्षिण में सेना भेजने और कुंवर को शाही दरबार में भेजने को समझाया। इसके अनुसार राणा ने कुँवर को शाहजहाँ के दरबार में भेजा, जहाँ उसको उपहारों से सम्मानित किया गया।

सितम्बर, 1657 ई. में जब शाहजहाँ के बीमार होने पर सम्राट के पुत्रों में राजसिंहासन प्राप्त करने के प्रयत्नों में तेजी आ गयी तो औरंगजेब ने महाराजा राजसिंह को पत्र लिखने आरम्भ किये जिनके द्वारा उसने उसको दक्षिण में अपनी सैनिक सहायता भेजने की अभ्यर्थना की। राणा ने इस अव्यवस्था का लाभ उठाने का निश्चय किया। ऐसे समय में ‘टीका दौड़’ के उत्सव का बहाना बनाकर, जिसमें मुहूर्त से वर्ष के पहले शिकार का आयोजन राज्य की सीमा के बाहर किया जाता था, राणा ने 2 मई, 1658 ई. में अपने राज्य के तथा बाहरी मुगल थानों पर हमले करना आरम्भ कर दिया। इस ‘टीका दौड़’ अभियान में राणा को लाखों रुपये की सम्पत्ति मिली और वह अपने खोये हुए भागों को अपने राज्य में सम्मिलित कर सका। औरंगजेब ने भी शासक बनते ही राणा के पद को 6 हजार ‘जात’ और 6 हजार ‘सवार’ बढ़ा दिया और ग्यासपुरा, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा के परगने उसके अधिकार क्षेत्र में कर दिये। औरंगजेब द्वारा प्राप्त फरमान से राणा ने 1669 ई. में डूँगरपुर, बाँसवाड़ा और देवलिया पर धावा बोल दिया। इससे भयभीत होकर वहाँ के शासकों ने राणा के अधिकार को मान्यता दी।

राजकुमारी चारुमती के विवाह की समस्या : चारुमती किशनगढ़ के राजा मानसिंह की बहन थी जिसका विवाह मानसिंह ने औरंगजेब के साथ करना स्वीकार किया। परन्तु चारुमती ने इसका विरोध किया और उसने महाराणा राजसिंह को पत्र लिखकर उससे विवाह करने का अनुरोध किया। राजसिंह सिसोदिया मुगल सम्राट औरंगजेब के विरोध की परवाह किए बिना ससैन्य किशनगढ़ पहुंचा और चारुमती से विवाह कर उसे अपने साथ ले आया। यह घटना औरंगजेब के लिए अपमानजनक थी। औरंगजेब ने नाराज होकर महाराणा से अनेक परगने छीन लिए।

राजसिंह ने अपने साथियों तथा प्रजा में सैनिक-जीवन की अभिव्यक्ति के लिए ‘विजय कटकातु’ की उपाधि धारण की।

औरंगजेब जो धर्म तथा विचारों से कट्टर मुसलमान था, शनै :- शनैः ऐसे प्रयोगों को कार्यान्वित करता रहा जिससे वह इस्लाम के तत्वों का पोषण और उसका प्रचार अपने राज्य में कर सके। अपने राज्यकाल के 11वें वर्ष (1668 ई.) में अपने दरबार में नाच-गान बन्द कर दिया। 1669 ई. से मन्दिरों को तोड़ने और हिन्दुओं की पाठशालाओं और मूर्तियों को नष्ट करने की आज्ञा दी। डॉ. ओझा ने लिखा है कि इन नियमों के प्रचलन से राजसिंह ने औरंगजेब का विरोध करना आरम्भ किया 2 अप्रैल, 1679 ई. में हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया। इस कर से साधारण-से-साधारण स्तर के हिन्दू नागरिक की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस नियम के प्रचलन के बाद राजसिंह ने कुँवर जयसिंह, इन्द्रसिंह झाला और गरीबदास (मुख्य पुरोहित) को औरंगजेब के दरबार में भेजा था और सम्राट ने पोशाक, इनाम और राणा के नाम फरमान देकर 30 अप्रैल, 1679 ई. को उन्हें विदा किया।

मुगल-सिसोदिया-राठौड़ युद्ध : 1678 ई. में जब महाराजा जसवन्तसिंह की मृत्यु जमरूद में हो गयी तो औरंगजेब ने मारवाड़ को खालसा घोषित कर दिया। वीर राठौड़ों ने अजीतसिंह को मेवाड़ में जाकर सुरक्षा दिलायी और वे मेवाड़ की शक्ति से मिलकर सम्राट की शक्ति को चुनौती देने लगे। राणा इस गतिविधि के पोषक इसलिए भी बने कि मुगलों का मारवाड़ में आना मेवाड़ की सीमा के लिए हानिकारक था। अजीतसिंह की माँ भी राणा की निकट संबंधी थी। इस परिस्थिति ने मेवाड़ और मारवाड़ को एक बनाया। वास्तव में यह एक प्रमुख कारण था कि सिसोदिया और राठौड़ एक होकर मुगल शक्ति का विरोध करने लगे। राजसिंह की 1680 ई. में मृत्यु हो गयी।

राणा ने गोमती नदी के पानी को रोककर राजसमंद झील का निर्माण करवाया। इस झील की नौ चौकी पाल पर ताकों में 25 बड़ी-बड़ी शिलाओं पर 25 सर्गो का राज प्रशस्ति महाकाव्य खुदा हुआ है, जो विश्व में सबसे बड़ा शिलालेख और शिलाओं पर खुदे हुए ग्रंथों में सबसे बड़ा है। इसकी रचना तैलंग जातीय रणछोड़ भट्ट ने की थी। राणा ने झील के पास सर्वऋतु विलास तथा जनसागर के निर्माण द्वारा शिल्प-कला को प्रोत्साहित किया। उन्होंने राजसमंद झील के पास राजनगर नामक कस्बा आबाद कराया। बादशाह के डर से श्रीनाथजी आदि की मूर्तियों को लेकर भागे हुए गोसाई लोगों को आश्रय देकर कांकरोली में द्वारकाधीश की मूर्ति तथा सिहाड़ (नाथद्वारा) में श्रीनाथजी की मूर्ति प्रतिष्ठित कराकर उसने अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय भी दिया।

हाड़ी रानी (सहल कंवर)

हाड़ी रानी हाड़ा वंश की राजकुमारी सहल कंवर सलूम्बर के युवा सामन्त रतनसिंह चूंडावत की नवविवाहिता पत्नी थी। रतनसिंह चूंडावत मेवाड़ के महाराणा राजसिंह सिसोदिया का सामंत था। जब वह औरंगजेब के विरूद्ध युद्ध के मैदान में जा रहा था तो जाते हुए अपनी पत्नी की याद सताने लगी। चूंडावत ने अपने सेवक को भेजकर रानी से सैनाणी (निशानी) लाने को कहा ताकि युद्ध के मैदान में उसकी याद न सताएं। रानी ने सोचा कि मेरी यादों के कारण वे अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर पायेंगे। हाड़ी रानी ने सेवक के हाथ से तलवार लेकर अपना सिर काट डाला। सेवक ने रानी का कटा सिर थाल में रखा और चूंडावत को भेंट किया। चूंडावत की भुजाएं फड़क उठी और शत्रुदल पर टूट पड़ा। युद्ध में विजयी रहा लेकिन वीरगति को प्राप्त हुआ।

राणा जयसिंह (1680-1698 ई.)

राणा जयसिंह और मुगलों की शक्ति के बीच सन्धि-वार्ता हुई जिसके अन्तर्गत मेवाड़ के लिए पुर, मण्डल और बदनौर को जजिया के एवज में देना निश्चित हुआ। ऐसा करने पर मुगल अपनी सेना मेवाड़ से हटा लेंगे। राणा को अपने पैतृक राज्य का स्वामी माना जाएगा और उसे पाँच हजारी मनसब दिया जाएगा। सन्धि के प्रस्ताव के अनुसार युद्ध स्थगित कर दिया गया। यद्यपि मुगल-मेवाड़ युद्ध स्थगित कर दिया गया, पर इससे आन्तरिक वैमनस्य की इतीश्री नहीं हई। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि भविष्य में राजपूत अपनी ओर से दक्षिण अभियान में मुगलों के सहयोगी न रहे। वे तटस्थ दर्शक के रूप में औरंगजेब की उलझनों को देखते रहे। महाराणा जयसिंह ने सार्वजनिक कार्य करवाए, जिनमें सबसे प्रमुख जयसमंद झील का निर्माण है। महाराणा के सार्वजनिक कार्यों का लाभ आज तक मेवाड़ की जनता को मिल रहा है।

महाराणा अमरसिंह-द्वितीय (1698-1710 ई.)

महाराणा जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् अमरसिंह द्वितीय मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। इन्होंने बागड व प्रतापगढ़ को पुनः अपने अधीन किया।

देबारी समझौता : देबारी समझौता (Debari Samjhota) 1708 में हुआ था। बहादुर शाह ने जयपुर के सवाई जयसिंह एवं मारवाड़ के अजीत सिंह से उनके राज्य को छीन लिया था। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके बेटे आजम और मुअज्जम दोनो के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ जिसके फलस्वरूप 12 जून 1707 को जजाऊ (आगरा के निकट) के मैदान में युद्ध हुआ और मुअज्जम (बहादुर शाह) जीत गया।

जजाऊ के युद्ध में कुछ राजपूत राजाओं ने आजम का साथ दिया जिसमे आमेर के जयसिंह और मारवाड़ के अजीतसिंह शामिल थे इसके विपरित मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय और अन्य राजपूत राजाओं ने मुअज्जम का साथ दिया था। मुअज्जम ने अजीत सिंह और जयसिंह को युद्ध में आजम का साथ देने के कारण उनका राज्य छीन लिया था। जयसिंह और अजीत सिंह को पता था की अगर मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय का साथ नहीं मिला तो राज पाना मुश्किल है।

मुअज्जम (बहादुर शाह) के खिलाफ यह समझौता मेवाड़ के अमरसिंह द्वितीय मारवाड़ के अजीत सिंह और जयपुर के सवाई जयसिंह के मध्य हुआ था। देबारी समझौते का मुख्य उद्देश्य अजीत सिंह को मारवाड़ का और सवाई जयसिंह को जयपुर का शासक बनाना था।

इस समझौते के तहत अमर सिंह द्वितीय की पुत्री चंद्रकंवर का विवाह जयसिंह से तय किया गया एवं यह शर्त रखी गई की चंद्रकंवर का होने वाला पुत्र जयपुर का अगला शासक होगा। लेकिन जयसिंह इसके खिलाफ अपने पुत्र ईश्वरी सिंह को शासक बनाता हैं लेकिन बाद में सवाई माधोसिंह मराठों एवं अपने नाना (अमर सिंह द्वितीय - मेवाड़) की सहायता से शासक बनता हैं।

संग्रामसिंह द्वितीय (1710-1734 ई.)

अमरसिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् इनका पुत्र संग्रामसिंह द्वितीय 1710 ई. में मेवाड़ का शासक बना। इनके द्वारा उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी, सीसारमा गाँव में वैद्यनाथ का विशाल मंदिर का निर्माण करवाया गया एवं वैद्यनाथ मंदिर की प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाई गयी।

महाराणा जगतसिंह द्वितीय (1734-1778 ई.)

संग्रामसिंह की मृत्यु के बाद जगतसिंह द्वितीय ने 1734 ई. में मेवाड़ की सत्ता संभाली। इसके समय अफगान आक्रमणकारी नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर उसे लूटा। मराठों ने इन्हीं के शासन में मेवाड़ में पहली बार प्रवेश कर इनसे कर वसूल किया। जगतसिंह द्वितीय ने पिछोला झील में जगत निवास महल बनवाया। इनके दरबारी कवि नेकराम ने ‘जगतविलास’ ग्रंथ लिखा। इन्होंने मराठों के विरुद्ध राजस्थान के राजाओं को संगठित करने के उद्देश्य से 17 जुलाई, 1734 ई. को हुरड़ा (भीलवाड़ा) नामक स्थान पर राजपूताना के राजाओं का सम्मेलन आयोजित कर एक शक्तिशाली मराठा विरोधी मंच बनाया। इस सम्मेलन का प्रस्ताव महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय रखा गया था। लेकिन संग्राम सिंह द्वितीय की मृत्यु हो जाने के कारण इस सम्मेलन की अध्यक्षता महाराणा जगतसिंह द्वितीय द्वारा की गई।

महाराणा भीमसिंह (1778-1828 ई.)

जगतसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद 1778 ई. में उसका पुत्र भीमसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। इनके समय में अनेक घटनाएं घटी।

कृष्णा कुमारी विवाद : कृष्णा कुमारी मेवाड़ महाराणा भीमसिंह की 16 वर्षीय कन्या थी जिसका शगुन जोधपुर महाराजा भीमसिंह को भेजा गया। विवाह पूर्व ही जोधपुर महाराजा भीमसिंह की मृत्यु हो गई तो महाराणा भीमसिंह ने राजकुमारी का शगुन जयपुर के महाराजा जगतसिंह को भेज दिया। इसका जोधपुर के नये शासक मानसिंह ने विरोध किया और जयपुर, जोधपुर में शगुन को लेकर ‘मिंगोली का युद्ध’ भी हुआ। जोधपुर शासक मानसिंह ने भाड़ैत के अमीर खां पिण्डारी को बुलाया जिसने तीनों ही पक्षों को बुरी तरह लूटा। अन्ततः अमीर खां पिण्डारी के दबाव में आकर महाराणा ने इस अल्पवयस्क कन्या को 1810 ई. में जहर देकर इसकी जीवन लीला समाप्त कर दी। जो मेवाड़ ही नहीं वरन् राजपूताने के इतिहास का कलंक है।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संधि (1818 ई.) : 1818 ई. में महाराणा भीमसिंह ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से अधीनस्थ सहयोग संधि कर ली। इस प्रकार मेवाड़ एक विदेशी शक्ति की दासता का शिकार हो गया। इनके बाद महाराणा जवानसिंह (1828-1838 ई.) मेवाड़ का शासक बना।

महाराणा सरदारसिंह (1838-1842 ई.)

इनके समय में भोमट आदिवासी क्षेत्र में भील जनजाति का उपद्रव तेज हो गया था। अतः जनजातीय उपद्रव को दबाने की आड लेकर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1841 ई. में इनके साथ में ‘मेवाड़ भील कोर’ का गठन किया।

महाराणा स्वरूपसिंह (1842-1861 ई.)

महाराणा स्वरूपसिंह ने जाली सिक्कों से व्यापार को नुकसान होने पर नये 'स्वरूपशाही' सिक्कों का प्रचलन किया। इन सिक्कों पर एक ओर 'चित्रकूट उदयपुर' और दूसरी ओर 'दोस्ती लंधन' लिखा हआ था। इन्होंने 1844 ई. में कन्यावध को निषेध कर दिया तथा 1853 ई. में डाकन प्रथा की समाप्ति कर दी। लेकिन पूर्ण समाप्ति महाराणा शंभूसिंह के काल में हुई। 15 अगस्त, 1861 को महाराणा ने सती प्रथा पर रोक लगाने का हुक्म जारी किया। महाराणा ने समाधि प्रथा पर भी रोक लगाई। इनकी मृत्यु 1861 ई. में हुई। स्वरूपसिंह के साथ पासवान ऐंजाबाई सती हुई। यह मेवाड़ महाराणाओं के साथ सती होने की अंतिम घटना थी। स्वरूपसिंह के बाद शंभूसिंह (1861-1872 ई.) मेवाड़ का महाराणा बना। इन्होंनें सती प्रथा को पूर्णतः प्रतिबंधित कर दिया।

महाराणा सज्जनसिंह (1872-1884 ई.)

20 अगस्त, 1880 को महाराणा सज्जन सिंह ने शासन प्रबंध एवं न्याय कार्य के लिए ‘महेन्द्राज सभा’ की स्थापना की। 1881 ई. में मेवाड़ में जनगणना का कार्य शुरू हुआ। 23 नवम्बर, 1881 ई. को गवर्नर जनरल लार्ड रिपन ने चित्तौड़ आकर महाराणा को जी.सी.एस.आई. (Grand Commander of the star of India) का खिताब दिया। 1881. ई. में उदयपुर में ‘सज्जन यंत्रालय’ नाम का छापाखाना स्थापित कर ‘सज्जन कीर्ति-सुधारक’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन किया गया। महाराणा ने अपने नाम से 'सज्जन अस्पताल' एवं कर्नल वॉल्टर के नाम पर 'वॉल्टर जनाना अस्पताल' भी खोला। महाराणा ने ‘सज्जन वाणी विलास’ नामक पुस्तकालय की स्थापना भी की।

महाराणा फतेहसिंह (1884-1921 ई.)

महाराणा फतेहसिंह ने उदयपुर में 1889 ई. में सज्जन निवास बाग में वॉल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा की स्थापना कर राजपूतों में बहुविवाह, बालविवाह एवं फिजूलखर्ची को रोकने का प्रबंध किया। महाराणा ने एक विशाल बांध का निर्माण करवाया। ब्रिटेन के राजकुमार के हाथों नींव रखवाकर उसका नाम केनॉट बांध रखा। राजकुमार के आग्रह पर बाद में इसका नाम फतहसागर रखा गया। 1899 ई. (विक्रम संवत् 1956-छप्पन्या) में मेवाड़ में भीषण अकाल पड़ा। केसरी सिंह बारहठ ने महाराणा फतेहसिंह को डिंगल भाषा में (चेतावनी रा चुंगटिया) 13 सोरठे (दोहे) लिखे। इनके समय बिजौलिया ठिकाने के जागीरदार के शोषण से परेशान वहां के किसानों ने आंदोलन किया। महाराणा फतेहसिंह के कार्यों से अंग्रेज सरकार खुश नहीं थी। अतः 1921 ई. में इनसे राज्य कार्य का अधिकार लेकर महाराज कुमार भूपालसिंह को सौंप दिया गया।

महाराणा भूपालसिंह (1921-1948 ई.)

महाराणा भूपालसिंह के समय में अनेक घटनाएं घटी थी जिनमें बिजौलिया कृषक आन्दोलन, मेवाड़ प्रजामण्डल आन्दोलन एवं राजस्थान का एकीकरण हुआ। इनके समय में मेवाड़ राज्य का विलय राजस्थान में हो गया।

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