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चौहान वंश

सांभर का चौहान वंश

चौहानों की उत्पति के संबंध में विभिन्न मत हैं। पृथ्वीराज रासौ(चंद्र बरदाई) में इन्हें ‘अग्निकुण्ड’ से उत्पन्न बताया गया है, जो ऋषि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ से उत्पन्न हुए चार राजपूत - प्रतिहार, परमार,चालुक्य एवं चौहानों(हार मार चाचो - क्रम) में से एक थे। मुहणोत नैणसी एवं सूर्यमल मिश्रण ने भी इस मत का समर्थन किया है। प. गौरीशंकर ओझा चौहानों को सूर्यवंशी मानते हैं। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार चौहानों की उत्पत्ति ब्राह्मण वंश से हुई है।

राजस्थान में चौहानों के मूल स्थान सांभर(शाकम्भरी देवी - तीर्थों की नानी,देवयानी तीर्थ) के आसपास वाला क्षेत्र माना जाता था, इस क्षेत्र को सपादलक्ष(सपादलक्ष का अर्थ सवा लाख गांवों का समूह) के नाम से जानते थे, प्रारम्भिक चौहान राजाओं की राजधानी अहिच्छत्रपुर (हर्षनाथ की प्रशस्ति) थी जिसे वर्तमान में नागौर के नाम से जानते हैं। सपादलक्ष के चौहानों का आदि पुरुष वासुदेव था, जिसका समय 551 ई. के लगभग अनुमानित है। बिजौलिया प्रशस्ति में वासुदेव को सांभर झील का निर्माता माना गया है। इस प्रशस्ति में चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। प्रारंभ में चौहान प्रतिहारों के सामन्त थे परन्तु गुवक प्रथम, जिसने हर्षनाथ मन्दिर (भगवान शंकर) का निर्माण कराया, स्वतन्त्र शासक के रूप में उभरा। इसी वंश के चन्दराज की पत्नी रुद्राणी यौगिक क्रिया में निपुण थी। ऐसा माना जाता है कि वह पुष्कर झील में प्रतिदिन एक हजार दीपक जलाकर महादेव की उपासना करती थी।

गूवक प्रथम के बाद गंगा के उपनाम से विग्रहराज द्वितीय को जाना जाता है सर्वप्रथम विग्रहराज द्वितीय ने भरूच (गुजरात) के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को पराजित किया तथा भरूच गुजरात में ही आशापुरा देवी के मंदिर का निर्माण कराया इस कारण विग्रहराज द्वितीय को मतंगा शासक कहा गया इस शासक की जानकारी का एकमात्र स्त्रोत सीकर से प्राप्त हर्षनाथ का शिलालेख है, जो संभवतयः 973ई. का है।

इस वंश के विग्रहराज तृतीय के पुत्र पृथ्वीराज प्रथम ने 1105 ई. में 700 चालुक्यों को जो पुष्कर के ब्राह्मणों को लूटने आये थे, मौत के घाट उतारा व ‘परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की। पृथ्वीराज प्रथम के मंत्री हट्ड ने सीकर में जीण माता के मंदिर का निर्माण करवाया।

अजयराज (1113-1133 ई.)

पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र का नाम अजयराज था। अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए उसने 1113 ई. में अजयमेरु (अजमेर) बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। उसने अजयमेरु में दुर्ग का निर्माण करवाया जिसे गढ़बीठली कहते हैं।, इस दुर्ग को पूर्व का जिब्राल्टर कहा जाता है। मेवाड़ के शासक पृथ्वीराज ने अपनी रानी तारा के नाम पर अजयमेरू दुर्ग का नाम तारागढ़ दुर्ग रखा बाद में यही अजयमेरू/तारागढ़/ गढ़बीठली के रूप में जाना जाने लगा अजयराज ने इस दुर्ग का निर्माण अजमेर की बीठली पहाड़ी पर कराया था जिसे कारण इसे गढ़बीठली कहा गया। अजयराज ने ‘श्री अजयदेव’ नाम से चाँदी के सिक्क चलाये। कुछ मुद्राओं पर उसकी रानी सोमलेखा (सोमलवती) का नाम भी अंकित मिलता है। कवीराज विजय के अनुसार उसने गजनी के मुसलमानों को परास्त कर साम्राज्य की रक्षा की। अपने पुत्र अर्णोराज को राज्य सौंपकर वह पुष्कराध्य चला गया।

अर्णोराज (1133-1155 ई.)

अजयराज के बाद अर्णोराज ने 1133 ई. के लगभग अजमेर का शासन संभाला। इसने महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक की उपाधि धारण की। अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणकारियों को खदेड़ा और मालवा के नरवर्मन को पराजित किया। अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया। जयानक ने अपने ग्रन्थ पृथ्वीराज विजय में लिखा है कि “अजमेर को तुर्कों के रक्त से शुद्ध करने के लिए आनासागर झील का निर्माण कराया था” क्योंकि इस विजय में तुर्का का अपार खून बहा था। जहांगीर ने यहां दौलत बाग का निर्माण करवाया। जिसे शाही बाग कहा जाता था। जिसे अब सुभाष उद्यान कहा जाता है। इस उद्यान में नूरजहां की मां अस्मत बेगम ने गुलाब के इत्र का आविष्कार किया। शाहजहां ने इसी उद्यान में पांच बारहदरी का निर्माण करवाया। अर्णांराज ने पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण करवाया था। अर्णोराज एवं चालुक्य जयसिंह सिद्धराज के मध्य वैमनस्य था। जयसिंह ने अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराज से करके मधुर संबंध बनाये। चालुक्य शासक कुमारपाल ने आबू के निकट युद्ध में इसे हराया। इस युद्ध का वर्णन प्रबन्ध चिन्तामणि (मेरुतुंगाचार्य) एवं प्रबन्ध कोश (राजशेखर सूरी) में मिलता है। अर्णोराज ने अजमेर में खरतरगच्छ (जैन श्वेतांबर) के अनुयायियों के लिए भूमिदान दिया। ‘देवबोध’ और ‘धर्मघोष’ उसके समय के प्रकाण्ड विद्वान थे जिनको उसने सम्मानित किया था। उसके पुत्र जग्गदेव ने उसकी हत्या कर दी। इस कारण इसे चौहानों का पितृहन्ता भी कहा जाता है। जग्गदेव की हत्या उसके भाई विग्रहराज चतुर्थ के द्वारा कर दी गई।

बीसलदेव चौहान (विग्रहराज चतुर्थ) (1158-1163 ई.)

जग्गदेव के अल्पकालीन शासन (1155-1158 ई.) के पश्चात् विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) 1158 ई. के लगभग अजमेर का शासक बना। चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ का काल सपादलक्ष का स्वर्णयुग कहलाता है। उसे वीसलदेव और कवि बान्धव भी कहा जाता था। शिवालिक अभिलेख के अनुसार इसने अपने राज्य की सीमाओं का अत्यधिक विस्तार किया। उसने गजनी के शासक अमीर खुशरुशाह (हम्मीर)दिल्ली के तोमर शासक तंवर को परास्त किया एवं दिल्ली को अपने राज्य में मिलाया। चालुक्य शासक कुमारपाल से पाली, नागौर व जालौर छीन लिये तथा भादानकों को भी पराजित किया। 1157 ई. में इन्होंने दिल्ली तथा हांसी पर अधिकार किया। दिल्ली में शिवालिक स्तम्भ का निर्माण करवाया। वह साहित्य प्रेमी व साहित्यकारों का आश्रयदाता भी था। इन्होंने ‘हरकेलि’ नाटक और उसके दरबारी विद्वान सोमदेव ने ‘ललित विग्रहराज’ नामक नाटक की रचना करके साहित्य स्तर को ऊँचा उठाया। ललित विग्रहराज नाटक में “बीसलदेव तथा देसलदेवी” के प्रेम प्रसंगों का वर्णन किया गया हैं। हरिकेली नाटक के अंशों को “ढाई दिन के झौपड़े तथा राजाराममोहन राय” की समाधि (ब्रिस्टल, इंग्लैंड) पर उत्कीर्ण करवाया गया। हरिकेली नाटक में “अर्जुन तथा शिव” के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया गया हैं। नरपति नाल्ह ने “गौडवाड़ी” में “बीसलदेव रासो” की रचना की थी। बीसलदेव रासौ में “बीसलदेव तथा राजमती” के प्रेम प्रसंगों का वर्णन हैं। विद्वानों का आश्रयदाता होने के कारण जयानक भट्ट ने विग्रहराज को ‘कवि बान्धव’ (कवि बंधु) की उपाधि प्रदान की। इनके अतिरिक्त उसने अजमेर में एक संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया। (अढ़ाई दिन के झोपड़ें की सीढ़ियों में मिले दो पाषाण अभिलेखों के अनुसार) जिसे कालांतर में मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने अढ़ाई दिन के झोंपड़े में परिवर्तित कर दिया। यहां पर पंजाब शाह नामक सुफीसंत का ढाई दिन का उर्स भरता था इसी कारण इसे ढाई दिन का झोंपडा कहते है। वर्तमान टोंक जिले में बीसलपुर कस्बा एवं बीसल सागर बाँध का निर्माण भी बीसलदेव द्वारा करवाया गया। दिल्ली शिवालिक अभिलेख से ज्ञात होता है कि विग्रहराज चतुर्थ ने म्लेच्छों को बार-बार पराजित किया और आर्यावर्त देश को सचमुच आर्यो के निवास के उपयुक्त बना दिया।

विग्रहराज चतुर्थ के बाद अपरगांगेय और उसके बाद पृथ्वीराज द्वितीय ग‌द्दी पर बैठा जिसने 1169 ई. तक शासन किया। पृथ्वीराज द्वितीय की निःसंतान मृत्यु होने पर उसके चाचा (अर्णोराज का पुत्र, जो गुजरात की राजकुमारी कांचन देवी से पैदा हुआ था) सोमेश्वर ने अजमेर का सिंहासन प्राप्त किया। सामेश्वर का लालन-पालन उसके ननिहाल गुजरात में हुआ था। कुमारपाल ने सोमेश्वर की पर्याप्त देखभाल की। कुमारपाल ने सोमेश्वर का विवाह कलचुरी (त्रिपुरी) नरेश अचल की राजकुमारी कर्पूरदेवी से करवा दिया था। कर्पूरदेवी से उसके पृथ्वीराज तृतीय और हरिराज नामक दो पुत्र हुए।

1177 ई. में जब सोमेश्वर आबू के शासक जैत्रसिंह की सहायता के लिए गया तो गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय के हाथों मारा गया।

सोमेश्वर को अजमेर में “मूर्तिकला का जनक” कहते हैं।

पृथ्वीराज चौहान तृतीय (1177-1192 ई.)

उपनाम : राय पिथौरा (युद्ध में पीठ न दिखाने वाला), दल पुंगल (विश्व विजेता)

चौहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय का जन्म 1166 ई. (वि.सं. 1223) में सोमेश्वर की रानी कर्पूरीदेवी की कोख से अन्हिलपाटन (गुजरात) में हुआ। अपने पिता का असमय देहावसान हो जाने के कारण मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने। उस समय कदम्बदास (कैमास) उनका सुयोग्य प्रधानमंत्री था। पृथ्वीराज के सिंहासनावरूढ़ होने के समय अजमेर राज्य की सीमाएँ उत्तर में थानेश्वर से दक्षिण में जहाजपुर (मेवाड़) तक विस्तृत थी। उत्तरी सीमा पर कन्नौज एवं दक्षिणी सीमा पर गुजरात उसके समीपस्थ शत्रु थे। उत्तर- पश्चिमी सीमा पर मुस्लिम आक्रमणकारियों की गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थी। ऐसे समय में बालक पृथ्वीराज की ओर से उसकी माता कर्पूरीदेवी ने बड़ी कुशलता एवं कूटनीति से शासन कार्य संभाला। परन्तु बहुत कम समय में ही पृथ्वीराज- तृतीय ने अपनी योग्यता एवं वीरता से समस्त शासन प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया। उसके बाद उसने अपने चारों ओर के शत्रुओं का एक-एक कर शनै-शनै खात्मा किया एवं दलपंगुल (विश्व विजेता) की उपाधि धारण की। सम्राट पृथ्वीराज ने तुर्क आक्रमणकारियों का प्रबल प्रतिरोध कर उन्हें बुरी तरह परास्त किया। वह स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करने वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और कवि थे, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाये हुए हैं। जयानक ने पृथ्वीराज विजय की रचना की थी। पृथ्वीराजरासो का लेखक चंदबरदाई भी पृथ्वीराज चौहान का आश्रित कवि था। चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो की रचना की, रासो का पिछला भाग चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया। पृथ्वीराज रासो की भाषा पिंगल है। साथ ही इसे हिन्दी की पहली रचना, महाकाव्य होने का सम्मान प्राप्त है। प्रसिद्ध सूफी संत और चिश्ती सम्प्रदाय से संबंधित ख्वाजा मुइनूद्दीन चिश्ती पृथ्वीराज तृतीय के समय अजमेर आये। अजमेर में इनकी दरगाह का निर्माण रजिया के पिता इल्तुतमिश ने करवाया।

पृथ्वीराज-तृतीय के प्रमुख सैनिक अभियान

नागार्जुन एवं भण्डानकों का दमन : पृथ्वीराज के राजकाज संभालने के कुछ समय बाद उसके चचेरे भाई नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया। वह अजमेर का शासन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। गुडगाँव के युद्ध में 1178 ई. में पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने नागार्जुन को पराजित कर दिया और उसके पूरे परिवार को मृत्युदण्ड दे दिया।

इसके बाद 1182 ई. में पृथ्वीराज ने भरतपुर-मथुरा क्षेत्र में भण्डानकों के विद्रोहों का अंत किया।

महोबा (तुमुल) का युद्ध : 1182 ई. में पृथ्वीराज ने महोबा के चंदेल वंश के शासक परमाल(परमार्दी) देव पर आक्रमण किया। इस युद्ध (तुमुल का युद्ध) में परमार्दिदेव के दो सेनानायक आल्हा व उदल वीरगति को प्राप्त हुए।

आल्हा और उदल

आल्हा और उदल महोबा के चन्देल शासक परमार्दिदेव के दो वीर सेनानायक थे जो अपने शामक से रूठकर पड़ौसी राज्य में चले गये थे। जब 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया तो परमार्दिदेव अपने दोनों वीर सेनानायकों के पास यह संदेश भिजवाया कि तुम्हारी मातृभूमि पर पृथ्वीराज ने आक्रमण कर दिया है। दोनों परमवीर सेनानायक पृथ्वीराज के विरुद्ध युद्ध में वीरता से लड़ते हुए अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हुए तथा अपनी वीरता, शौर्य एवं बलिदान के कारण इतिहास में अमर हो गए। इनक शौर्य गीत ‘जब तक आल्हा-उढ़ल है तुम्हें कौन पड़ी परवाह’ आज भी जनमानस को उद्वेलित करते हैं।

चालुक्यों पर विजय : गुजरात के चालुक्यों और अजमेर के चौहानों के बीच दीर्घकाल से संघर्ष चला आ रहा था किन्तु सोमेश्वर के शासनकाल में दोनों के मैत्रीपूर्ण संबंध रहे। पृथ्वीराज तृतीय के समय यह संघर्ष पुनः चालू हो गया। पृथ्वीराज रासो के अनुसार संघर्ष का कारण यह था कि पृथ्वीराज तृतीय तथा चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय दोनों आबू के शासक सलख की पुत्री इच्छिनी से विवाह करना चाहते थे। पृध्वीराज रासो में संघर्ष का दूसरा कारण यह बताया है कि पृथ्वीराज तृतीय के चाचा कान्हा ने भीमदेव द्वितीय के सात चचरे भाइयों को मार दिया था, इसलिए भीमदेव ने अजमेर पर आक्रमण कर नागौर पर अधिकार कर लिया तथा सोमश्वर को मार डाला। युद्ध का वास्तविक कारण यह था कि चालुक्यों का राज्य नाडौल तथा आबू तक फैला हुआ था और पृथ्वीराज तृतीय के राज्य की सीमाएं नाडौल व आबू को स्पर्श कर रही थी। अतः दोनों में संघर्ष होना स्वाभाविक था। 1184 ई. में दोनों पक्षों के बीच घमासान किन्तु अनिर्णायक युद्ध हुआ और अन्त में 1187 ई. के आस-पास चालुक्यों के महामंत्री जगदेव प्रतिहार के प्रयासों से दोनों में एक अस्थायी संधि हो गयी।

कन्नौज से संबंध : पृथ्वीराज के समय कन्नौज पर गहड़वाल शासक जयचन्द का शासन था। जयचंद एवं पृथ्वीराज दोनों की राज्य विस्तार की महत्त्वाकांक्षाओं ने उनमें आपसी वैमनस्य उत्पन्न कर दिया था। उसके बाद उसकी पुत्री संयोगिता को पृथ्वीराज द्वारा स्वयंवर से उठा कर ले जाने के कारण दोनों की शत्रुता और बढ़ गई थी। इसी वजह से तराइन के युद्ध में जयचंद ने पृथ्वीराज की सहायता न कर मुहम्मद गौरी की सहायता की।

संयोगिता

पृथ्वीराजरासो के अनुसार संयोगिता जयचन्द्र गहड़वाल की पुत्री थी। पृथ्वीराज और संयोगिता में प्रेम था। जयचन्द्र ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया जिसके साथ-साथ संयोगिता का स्वयंवर भी रचा गया। परन्तु पृथ्वीराज को उसमें नहीं बुलाया गया। उसने पृथ्वीराज को अधिक अपमानित करने के लिए उसकी लोहे की मूर्ति द्वारपाल के स्थान पर खड़ी कर दी। जब स्वयंवर का समय आया तो राजकुमारी ने अपने प्रेमी पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में वरमाला डाल दी। चौहान राजा भी अपने सैन्य बल के साथ घटनास्थल पर पहुँच गया और संयोगिता को उठाकर अजमेर ले जाकर उसके साथ विवाह कर लिया।

पृथ्वीराज एवं मुहम्मद गौरी

पृथ्वीराज के समय भारत के उत्तर-पश्चिम में गौर प्रदेश पर शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी का शासन था। उसने गजनी के शासक सुल्तान मलिक खुसरो को हराकर गजनवी द्वारा अधिकृत सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। मुहम्मद गौरी धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार करता जा रहा था। सन् 1178 में उसने पंजाब, मुल्तान एवं सिंध को जीतकर अपने अधीन कर लिया था।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)

पृथ्वीराज के दिल्ली, हाँसी, सरस्वती एवं सरहिंद के दुर्गों को जीतकर अपने अधिकार में कर लेने के बाद 1190-91 में गौरी ने सरहिंद (तबरहिंद) पर अधिकार कर अपनी सेना वहाँ रख दी। पृथ्वीराज अपने क्षेत्र से आक्रांताओं को भगाने हेतु सरहिंद पर आक्रमण करने हेतु बढ़ा। मुहम्मद गौरी अपने विजित क्षेत्र को बचाने हेतु विशाल सेना सहित तराइन के मैदान (हरियाणा) के मैदान में आ डटा। पृथ्वीराज भी अपनी सेना सहित वहाँ पहुँचा। दोनों सेनाओं के मध्य 1191 ई. में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ जिसमें दिल्ली के गवर्नर गोविन्दराज ने मुहम्मद गौरी को घायल कर दिया। घायल गौरी युद्ध भूमि से बाहर निकल गया एवं कुछ ही समय में गौरी की सेना भी मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। पृथ्वीराज ने इस विजय के बाद भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा न कर मुहम्मद गौरी व उसकी सेना को जाने दिया। पृथ्वीराज ने ऐसा कर बड़ी भूल की जिसकी कीमत उसे अगले वर्ष ही तराइन के द्वितीय युद्ध में चुकानी पड़ी।

तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)

प्रथम युद्ध में जीत के बाद पृथ्वीराज निश्चित हो आमोद प्रमोद में व्यस्त हो गया जबकि गौरी ने पूरे मनोयोग से विशाल सेना पुनः एकत्रित की एवं युद्ध की तैयारियों में व्यस्त रहा। एक वर्ष बाद 1192 ई. में ही गौरी अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वीराज से अपनी हार का बदला लेने हेतु तराइन के मैदान में पुनः आ धमका। पृथ्वीराज को समाचार मिलते ही वह भी सेना सहित युद्ध मैदान की ओर बढ़ा। उसके साथ उसके बहनोई मेवाड़ शासक समरसिंह एवं दिल्ली के गवर्नर गोविन्द राज भी थे। दोनों सेनाओं के मध्य तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें मुहम्मद गौरी की विजय हुई। पराजित पृथ्वीराज चौहान को सिरसा के पास सरस्वती नामक स्थान पर बंदी बना लिया गया। पृथ्वीराज रासो के अनुसार बंदी पृथ्वीराज को गौरी अपने साथ गजनी ले गया जहां शब्द भेदी बाण के प्रदर्शन के समय पृथ्वीराज ने गौरी को मार डाला।

चंदबरदाई ने इस संबंध में पृथ्वीराज को दोहा सुनाया -

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।
तां ऊपर सुल्तान है, मत चूकै चौहान।।

जबकि समकालीन इतिहासकार हसन निजामी के अनुसार तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी के अधीनस्थ शासक के रूप में अजमेर पर शासन किया था। इसामी के कथन के पक्ष में एक सिक्के का भी संदर्भ दिया जाता है जिसके एक तरफ मुहम्मद बिन साम और दूसरी तरफ पृथ्वीराज नाम अंकित है। इस तरह अजमेर एवं दिल्ली पर मुहम्मद गौरी का शासन स्थापित हो गया। तराइन के युद्ध के बाद गौरी ने पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज को अजमेर का प्रशासक नियुक्त किया। तराइन का द्वितीय युद्ध भारतीय इतिहास की एक निर्णायक एवं युग परिवर्तनकारी घटना साबित हुआ। इससे भारत में स्थायी मुस्लिम साम्राज्य का प्रारंभ हुआ। मुहम्मद गौरी भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक बना। इसके बाद धीरे-धीरे गौरी ने कन्नौज, गुजरात, बिहार आदि क्षेत्रों को जीता और कुछ ही वर्षों में उत्तरी भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का शासन स्थापित हो गया।

तराइन के दोनों युद्धों का विस्तृत विवरण कवि चन्द्र बरदाई के पृथ्वीराज रासो, हसन निजामी के ताजुल मासिर एवं सिराज के तबकात-ए-नासिरी में मिलता है।

तराइन के द्वितीय युद्ध के पश्चात् भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युद्ध के बाद चौहानों की शक्ति समाप्त हो गई। लगभग आगामी एक शताब्दी तक चौहानों की शाखाएँ रणथम्भौर, जालौर, हाड़ौती, नाड़ौल तथा चन्द्रावती और आबू में शासन करती रहीं और राजपूत शक्ति की धुरी बनी रहीं।

रणथम्भौर के चौहान

तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के बाद उसके पुत्र गोविंदराज ने कुछ समय बाद रणथम्भौर में चौहान वंश का शासन स्थापित किया। उनके उत्तराधिकारी वल्हण को दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। इसी वंश के शासक वाग्भट्ट ने पुनः दुर्ग पर अधिकार कर चौहान वंश का शासन पुनः स्थापित किया। रणथम्भौर के सर्वाधिक प्रतापी एवं अंतिम शासक हम्मीर देव चौहान थे। उन्होंने दिग्विजय की नीति अपनाते हुए अपने राज्य का चहुँओर विस्तार किया। राणा हम्मीर देव ने अलाउद्दीन के विद्रोही सैनिक नेता मुहम्मदशाह को शरण दे दी, अतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 1301 ई. में हुए अंतिम युद्ध में हम्मीर चौहान की पराजय हुई और दुर्ग में पत्नि रंगदेवी ने जल जोहर किया तथा सभी राजपूत योद्धा मारे गये। 11 जुलाई, 1301 को दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया।

यह राजस्थान का पहला साका माना जाता है। इस युद्ध में अमीर खुसरो अलाउद्दीन की सेना के साथ ही था।

हम्मीर ने अपने जीवन में कुल सत्रह युद्ध किए जिनमें से 16 युद्धों में उसके द्वारा विजय प्राप्त की गई।

हम्मीर देव चौहान ने पण्डित विश्वभट्ट/विश्वरूप के नेतृत्व में “कोटी यजन यज्ञ” करवाया।

नयनचन्द्र सूरी ने अपने ग्रन्थ हम्मीर महाकाव्य में हम्मीर की दिग्विजयों का उल्लेख किया है।

चन्द्रशेखर ने अपने ग्रन्थ हम्मीरहठ में वर्णित किया है कि मुहम्मदशाह और अलाउद्दीन खिलजी की मराठा रानी चिमना ने सुल्तान की हत्या का षड्यंत्र रचा। इस षड्यंत्र के विफल होने पर मुहम्मदशाह रणथम्भौर के शासक हम्मीर की शरण में चला आया।

जालौर के चौहान

जालौर दिल्ली से गुजरात व मालवा जाने के मार्ग पर पड़ता था। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर ज्ञात होता है कि जालौर एक प्राचीन नगर था, जो गुर्जर प्रदेश का एक हिस्सा था। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर या जालहुर था तथा यहाँ के किले को 'सुवर्णगिरी' कहते हैं। यह प्रतिहार शासन काल में (8वीं से 11वीं सदी के प्रारंभ तक) एक समृद्धिशाली नगर था। प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम ने जालौर को अपनी राजधानी बनाया था। जालौर दुर्ग का निर्माण भी संभवतः उसने ही करवाया था। प्रतिहारों की शक्ति क्षीण होने के बाद इस प्रदेश पर परमारों ने अपना शासन स्थापित किया। इसके बाद वहाँ 13वीं सदी में सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा परमारों को परास्त करके की गई थी। सुण्डा पर्वत अभिलेख में उसे ‘राजेश्वर’ कहा गया है। कीर्तिपाल के उत्तराधिकारी समरसिंह ने जालौर दुर्ग को और सुदृढ़ बनाया। वह एक कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने गुजरात के शक्तिशाली चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी पुत्री लीलादेवी का विवाह कर उसे अपना संबंधी एवं मित्र बना लिया। समरसिंह का पुत्र उदयसिंह सर्वाधिक शक्तिशाली सोनगरा शासक था। उसने दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश के आक्रमण को असफल कर उसे वापस दिल्ली लौटने को मजबूर कर दिया। सन् 1305 में यहाँ के शासक कान्हड़दे चौहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई।

जालौर के मार्ग में सिवाना का दुर्ग पड़ता है, अतः पहले अलाउद्दीन खिलजी ने 1308 ई. में सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम खैराबाद रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। वीर सातल और सोम वीर गति को प्राप्त हुए।

सन् 1311 ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया और कई दिनों के घेरे के बाद अंतिम युद्ध में अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपूत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ कान्हड़दे प्रबन्ध तथा वीरमदेव सोनगरा की वात में मिलती है।

नाडोल के चौहान

चौहानों की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाक्पति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के आधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। शाकम्भरी के चौहानों के बाद यह प्रथम चौहान राज्य था। यह चौहानों की सबसे प्राचीन शाखा थी जो शाकम्भरी से निकली। नाडोलन शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177 ई. के लगभग मेवाड़ शासक सामन्तसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. के लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।

सिरोही के चौहान

सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रावती थी। बाद में बार-बार के मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहासमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया। इसी के, काल में महाराणा कुंभा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया।

1823 ई. में यहाँ के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा उसे सौंप दिया। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।

हाड़ौती के चौहान

बूँदी के चौहान

हाड़ौती में वर्तमान बूँदी, कोटा, झालावाड़ एवं बारां के क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहाँ मीणा जाति का ही राज्य स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बूँदी में ही आता था। 1241 ई. में यहाँ हाड़ा चौहान देवा ने मीणा शासक जैता को पराजित कर यहाँ चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों का ही वंशज था।

बूँदी का यह नाम वहाँ के शासक बूँदा मीणा के नाम पर पड़ा। मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने आक्रमण कर बूँदी को अपने अधीन कर लिया। तब से बूँदी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहाँ के शासक सुरजन सिंह ने अकबर से संधि कर मुगल आधीनता स्वीकार कर ली और तब से बूँदी मेवाड़ से मुक्त हो गया। 1631 ई. में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने कोटा को बूँदी से स्वतंत्र कर बूँदी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को वहाँ का शासक बना दिया। मुगल बादशाह फर्रुखशियर के समय बूँदी नरेश बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के कारण बूँदी राज्य का नाम फर्रुखाबाद रख उसे कोटा नरेश को दे दिया परंतु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बूँदी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बूँदी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रहे, जिनमें मराठे, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम प्रवेश बूँदी में हुआ, जब 1734 ई. में वहाँ की बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द (अमर) कुँवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया।

1818 ई. में बूँदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बूँदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देश की स्वाधीनता के बाद बूँदी का राजस्थान संघ में विलय हो गया।

कोटा के चौहान

कोटा प्रारंभ में बूँदी रियासत का ही एक भाग था। यहाँ हाड़ा चौहानों का शासन था। शाहजहाँ के समय 1631 ई. में बूँदी नरेश राव रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का पृथक राज्य देकर उसे बूँदी से स्वतंत्र कर दिया। तभी से कोटा स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। कोटा पूर्व में कोटिया भील के नियंत्रण में था, जिसे बूँदी के चौहान वंश के संस्थापक देवा के पौत्र जैत्रसिंह ने मारकर अपने अधिकार में कर लिया। कोटिया भील के कारण इसका नाम कोटा पड़ा।

मुकुन्द सिंह हाड़ा (1648 से 1658 ई)

माधोसिंह के बाद उसका पुत्र मुकुन्द सिंह यहाँ का शासक बना।

इन्होंने अपनी पासवान अबली मीणी की याद में दर्रा अभ्यारण्य में अबली-मीणी का महल बनाया इस महल को हाड़ौती का ताजमहल कहते हैं। 1658 ई. धरमत के युद्ध में शाही सेना की ओर से औरंगजेब विरुद्ध लड़ता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ।

किशोर सिंह ने कोटा के किशोर सागर तालाब का निर्माण करवाया।

रामसिंह प्रथम (1696 से 1707 ई.) ने औरंगजेब के पुत्रों के मध्य लड़े गए उत्तराधिकारी युद्ध में आजम का साथ दिया और जाजऊ के युद्ध में लड़ते हुए मारा गया।

भीम सिंह प्रथम (1707 से 1720 ई.)

इनको कोटा राज्य का सबसे प्रभावशाली शासक माना जाता है।

भीमसिंह ने खींची शासकों से गागरोन छीन लिया और कुछ समय के लिए बूँदी पर भी अधिकार कर लिया।

बहादुरशाह प्रथम ने इनको “महाराव” की उपाधि दी थी।

भीमसिंह प्रथम ने राज-पाट छोड़कर भक्ति का मार्ग अपनाया और अपना नाम “कृष्ण दास” रखा तथा कोटा का नाम “नन्दगाँव” रखा।

बाराँ जिले में सांवरिया जी के मन्दिर का निर्माण करवाया।

दुर्जनशाल हाड़ा के समय कोटा रियासत में सर्वप्रथम मराठों का प्रवेश हुआ।

झाला जालिमसिंह (1769-1823 ई.)

कोटा राज्य के प्रधानमंत्री झाला जालिमसिंह को कोटा राज्य का वीर दुर्गादास राठौड़ कहते है। मराठों, अंग्रेजों एवं पिंडारियों से अच्छे संबंध होने के कारण कोटा इनसे बचा रहा। दिसम्बर, 1817 ई. में यहाँ के फौजदार जालिमसिंह झाला ने कोटा राज्य की ओर से ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। रामसिंह के समय सन् 1838 ई. में महारावल झाला मदनसिंह जो कि कोटा का दीवान एवं फौजदार था तथा झाला जालिमसिंह का पौत्र था, को कोटा से अलग कर ‘झालावाड़’ का स्श्वतंत्र राज्य दे दिया गया। इस प्रकार 1838 ई. में झालावाड़ एक स्वतंत्र रियासत बनी। यह राजस्थान में अंग्रेजों द्वारा बनायी गई आखिरी रियासत थी। इसकी राजधानी झालरापाटन बनाई गई।

1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद मार्च, 1948 में कोटा का राजस्थान संघ में विलय हो गया और कोटा महाराव भीमसिंह इसके राजप्रमुख बने एवं कोटा राजधानी। बाद में इसका विलय वर्तमान राजस्थान में हो गया।

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