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1857 की क्रान्ति

राजस्थान के देशी राज्यों ने अंग्रेजी कम्पनी के साथ संधियाँ (1818 ई.) करके मराठों द्वारा उत्पन्न अराजकता से मुक्ति प्राप्त कर ली तथा राज्य की बाह्य सुरक्षा के बारे में भी निश्चित हो गए, क्योंकि अब कम्पनी ने उनके राज्य की बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ले ली थी। परन्तु संधियों में उल्लेखित शर्तों को कम्पनी के अधिकारियों ने जैसे ही क्रियान्वित करना शुरू किया, राजाओं के वंश परम्परागत अधिकारों पर कुठाराघात होंने लगा। कम्पनी ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करके देशी नरेशों की प्रभुसत्ता पर भी चोट की एवं उनकी स्थिति कम्पनी के सामन्तों व जागीरदारों जैसी हो गई। कम्पनी की नीतियों से सामन्तों के पद, मर्यादा व अधिकारों को भी आघात लगा। कम्पनी द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप राजा, सामन्त, किसान, व्यापारी, शिल्पी एवं मजदूर सभी वर्ग पीड़ित हुए। कम्पनी के साथ की गई संधियों के कई दुष्परिणाम सामने आए, जिन्होंने 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि बनाई।

तत्कालीन गवर्नर जनरल कैनिंग द्वारा ब्राउनबैंस राइफलों के स्थान पर एनफील्ड राइफलों का प्रयोग शुरू किया। इन राइफलों के कारतूसों में गाय व सुअर की चर्बी लगी होती थी, जिससे भारतीय हिन्दू व मुस्लिम सैनिकों में असंतोष फैल गया।

राजपूताना रेजीडेन्सी

राजपूताना रेजीडेन्सी की स्थापना 1832 ई. में हुई। इसका मुख्यालय अजमेर में बनाया गया। इसका मुख्य अधिकारी ए.जी.जी (एजेन्ट टू गर्वनर जनरल) होता था।

प्रथम A.GG. मि. लॉकेट था।

1845 ई. में विलियम बैंटिक द्वारा राजपूताना रेजीडेन्सी का ग्रीष्मकालीन कार्यालय आबू में स्थानान्तरित कर दिया। 1857 ई. की क्रान्ति के समय ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स था।

क्रांति के समय ब्रिटेन प्रधानमंत्री पार्मस्टन थे और ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ऐलिजाबेथ थी।

क्रांति के समय गवर्नर जनरल कैनिंग था।

कम्पनी का मुख्य सेनापति कैम्पवैल था।

1857 की क्रान्ति का प्रतीक चिन्ह - कमल का फूल व रोटी (चपाती) थी।

क्रांति की तारीख 31 मई को तय हुई थी। लेकिन क्रांति 10 मई को मेरठ (उत्तर प्रदेश) से प्रारम्भ हो गई।

क्रांति का मुख्य नेता बहादुर शाह जफर-द्वितीय था।

क्रांन्ति के समय पॉलिटिकल एजेन्ट -

रियासत पॉलिटिकल एजेन्ट शासक
जयपुर ईडन रामसिंह-द्वितीय
कोटा बर्टन रामसिंह-द्वितीय
जोधपुर GH. मेकमोसन तख्त सिंह
उदयपुर शावर्स स्वरूप सिंह
सिरोही जे.डी. हॉल शिवसिंह
भरतपुर मॉरीसन जसवंत सिंह
धौलपुर निक्सन भगवन्त सिंह
बाँसवाड़ा कर्नल रांक लक्ष्मण सिंह

भरतपुर के शासक जसवंत सिंह नाबालिग थे। इसलिए मॉरीसन को वापस भेज दिया गया। निक्सन ने ही धौलपुर व भरतपुर के पॉलिटिकल एजेन्ट के रूप में कार्य किया।

1857 की क्रांति प्रारम्भ होने के समय राजपूताना में 6 सैनिक छावनियाँ थी।

  1. नसीराबाद (अजमेर) : 15वीं बंगाल पैदल सेना
  2. नीमच (मध्यप्रदेश) : फर्स्ट बंगाल केवेलरी
  3. देवली (टोंक) : कोटा कन्टिनजेन्ट
  4. ब्यावर : मेर रेजीमेन्ट
  5. एरिनपुरा (पाली) : जोधपुर लीजन
  6. खेरवाड़ा (उदयपुर) : मेवाड़ भील कोर

इन 6 छावनियों में पाँच हजार सैनिक थे। नसीराबाद सबसे शक्तिशाली छावनी थी। खैरवाड़ा व ब्यावर सैनिक छावनीयों ने इस सैनिक विद्रोह में भाग नहीं लिया।

मेरठ में हुए विद्रोह (10 मई,1857) की सूचना राजस्थान के ए.जी.जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) जार्ज पैट्रिक लॉरेन्स को 19 मई, 1857 को प्राप्त हुई। सूचना मिलते ही उसने सभी शासकों को निर्देश दिये कि वे अपने-अपने राज्य में शान्ति बनाए रखें तथा अपने राज्यों में विद्रोहियों को न घुसने दें। ए.जी.जी. के सामने उस समय अजमेर की सुरक्षा की समस्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि अजमेर शहर में भारी मात्रा में गोला बारूद एवं सरकारी खजाना था। यदि यह सब विद्रोहियों के हाथ में पड़ जाता तो उनकी स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती। अजमेर स्थित भारतीय सैनिकों की दो कम्पनियाँ हाल ही में मेरठ से आयी थी और ए.जी.जी. ने सोचा कि सम्भव है यह इन्फेन्ट्री (15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री) मेरठ से विद्रोह की भावना लेकर आयी हो, अतः इस इन्फेन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया तथा ब्यावर से दो मेर रेजीमेन्ट बुला ली गई। तत्पश्चात् उसने डीसा (गुजरात) से एक यूरोपीय सेना भेजने को लिखा।

राजस्थान में क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से हुई, जिसके निम्न कारण थे -

  1. ए.जी.जी. ने 15वीं बंगाल इन्फेन्ट्री जो अजमेर में थी, उसे अविश्वास के कारण नसीराबाद में भेज दिया था। इस अविश्वास के चलते उनमें असंतोष पनपा।
  2. मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना के पश्चात् अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने नसीराबाद स्थित सैनिक छावनी की रक्षार्थ फर्स्ट बम्बई लांसर्स के उन सैनिकों से, जो वफादार समझे जाते थे, गश्त लगवाना प्रारम्भ किया। तोपों को तैयार रखा गया। अतः नसीराबाद में जो 15वीं नेटिव इन्फेन्ट्री थी, उसके सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेजों ने यह कार्यवाही भी भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए की है। अतः उनमें विद्रोह की भावना जागृत हुई।
  3. बंगाल और दिल्ली से छद्मधारी साधुओं ने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रसारित किया, जिससे अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। वस्तुतः 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूसों को लेकर था। एनफील्ड राइफलों में प्रयोग में लिए जाने वाले कारतूस की टोपी (केप) को दाँतों से हटाना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय तथा सूअर की चर्बी काम में लाई जाती थी। इसका पता चलते ही हिन्दू-मुसलमान सभी सैनिकों में विद्रोह की भावना बलवती हो गई। सैनिकों ने यह समझा कि अंग्रेज उन्हें धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं। यही कारण था कि क्रांति का प्रारम्भ नियत तिथि से पहले हो गया।

नसीराबाद - 28 मई 1857 (अजमेर)

राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिकों द्वारा हुआ। नसीराबाद छावनी के सैनिकों में 28 मई, 1857 को विद्रोह कर छावनी को लूट लिया तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर आक्रमण किये। मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी की हत्या के बाद शेष अंग्रेजों ने नसीराबाद छोड़ दिया। छावनी को लूटने के बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों ने 18 जून, 1857 को दिल्ली पहुँचकर अंग्रेज पलटन को पराजित किया, जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी।

नीमच - 3 जुन 1857 (मध्यप्रदेश)

मोहम्मद अली बेग नामक सैनिक ने कर्नल एबॉट के सामने अंग्रेजो के प्रति वफादारी की प्रतिज्ञा लेने से मना कर दिया। अली बेग ने कहा “अंग्रेजों ने अपनी शपथ भंग की है। क्या उन्होंने अवध पर अधिकार नहीं किया? अतः उन्हें यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि भारतीय अपनी शपथ का अनुपालन करेंगे।” 3 जून, 1857 को नीमच छावनी के भारतीय सैनिकों ने हीरासिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। उन्होंने शस्त्रागार को आग लगा दी तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर एक अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया। नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा में अंग्रेज बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। यहाँ के सामन्त उम्मेदसिंह ने इनको रसद की आपूर्ति की। यहाँ से ये सैनिक निम्बाहेड़ा पहुँचे, जहाँ जनता ने इनका स्वागत किया। इन सैनिकों ने देवली छावनी (5 जून, 1857) को घेर लिया, छावनी के सैनिकों ने इनका साथ दिया। छावनी को लूटकर ये क्रांतिकारी टोंक पहुँचे, जहाँ जनता ने नवाब के आदेशों की परवाह न करते हुए इनका स्वागत किया। टोंक से आगरा होते हुये ये सैनिक दिल्ली पहुँच गये। पॉलिटिकल एजेन्ट कैप्टन शावर्स ने कोटा, बूँदी तथा मेवाड़ की सेनाओं की सहायता से नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया।

नीमच छावनी से भागे 40 अंग्रेंजो ने डूंगला (चित्तौड़) गाँव में रुघाराम के पास शरण ली। मेवाड़ P.A. शॉबर्स इन्हें उदयपुर लेकर जाता है। महाराणा स्वरूप सिंह ने इन्हें जगमन्दिर महलों में रखा था।

एरिनपुरा - 21 अगस्त 1857 (पाली)

1835 ई. में अंग्रेजों ने जोधपुर की सेना के सवारों पर अकुशल होने का आरोप लगाकर जोधपुर लीजियन का गठन किया। इसका केन्द्र एरिनपुरा रखा गया। 21 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजियन के सैनिकों ने विद्रोह कर आबू में अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। यहाँ से ये एरिनपुरा आ गये, जहाँ इन्होंने छावनी को लूट लिया तथा जोधपुर लीजियन के शेष सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर “चलो दिल्ली, मारो फिरंगी” के नारे लगाते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। एरिनपुरा के विद्रोही सैनिकों की भेंट ‘खैरवा’ नामक स्थान पर आउवा ठाकुर कुशालसिंह से हुई।

कुशाल सिंह के सहयोगी -

  1. आसोप का शिवनाथ
  2. गूलर का बिशन सिंह
  3. आलनियावास का अजीतसिंह

बिथोड़ा का युद्ध : ए.जी.जी. लॉरेन्स ने जोधपुर शासक तख्तसिंह को आऊवा सामन्त को दबाने के निर्देश दिए, तख्त सिंह ने किलेदार अनार/ओनाड सिंह व कुशलराज सिंघवी के नेतृत्व में सेना आऊवा भेजी। इस सेना के साथ केप्टन हीथकोट के नेतृत्व में अंग्रेजों की एक पलटन भी थी। बिथौड़ा युद्ध में तख्तसिंह का सेनापति अनार सिंह मारा गया। कैप्टन हीथकोट व कुशलराज सिंघवी युद्ध से बचकर निकले। कुशाल सिंह चम्पावत की विजय हुई।

चेलावास का युद्ध (उपनाम - गौरों व कालों का युद्ध) : जोधपुर की सेना की पराजय की खबर पाकर ए.जी.जी. जॉर्ज लारेन्स स्वयं एक सेना लेकर आउवा पहुँचा। मगर 18 सितम्बर, 1857 को वह विद्रोहियों से परास्त हुआ। इस संघर्ष के दौरान जोधपुर का पोलिटिकल एजेन्ट मोक मेसन क्रांतिकारियों के हाथों मारा गया। उसका सिर आउवा के किले के द्वार पर लटका दिया गया। अक्टूबर, 1857 में जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गये।

आउवा का युद्ध : ब्रिगेडियर होम्स के अधीन एक सेना ने 20 जनवरी, 1858 को आउवा पर आक्रमण कर दिया। विजय की उम्मीद न रहने पर कुशालसिंह ने सलूंबर (केसरी सिंह) में शरण ली। उसके बाद ठाकुर पृथ्वीसिंह (कुशालसिंह का छोटा भाई) ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। अन्त में, आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर अंग्रेजों ने अपनी ओर मिला लिया और किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने यहाँ अमानवीय अत्याचार किए एवं आउवा की महाकाली की मूर्ति (सुगाली माता) को अजमेर ले गये। अगस्त 1860 में कुशाल सिंह आत्मसमर्पण कर दिया। कुशाल सिंह के विद्रोह की जांच के लिए मेजर टेलर आयोग का गठन किया। साक्ष्यों के अभाव में कुशाल सिंह को रिहा कर दिया जाता है।

कोटा

कोटा में राजकीय सेना तथा आम जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया। 14 अक्टूबर, 1857 को कोटा के पोलिटिकल एजेन्ट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय से भेंट कर अंग्रेज विरोधी अधिकारियों को दण्डित करने का सुझाव दिया। मगर महाराव ने अधिकारियों के अपने नियंत्रण में न होने की बात कहते हुए बर्टन के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया। 15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की सेना ने रेजीडेन्सी को घेरकर मेजर बर्टन और उसके पुत्रों तथा एक डॉक्टर की हत्या कर दी। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया। विद्रोही सेना का नेतृत्व रिसालदार मेहराबखाँ और लाला जयदयाल कर रहे थे। कोटा महाराव की स्थिति असहाय हो गयी। वह एक प्रकार से महल का कैदी हो गया। लाला जयदयाल और मेहराबखाँ ने समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और जिला अधिकारियों को राजस्व वसूली के आदेश दिये गये। मेहराबखाँ और जयदयाल ने महाराव को एक परवाने पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया, जिसमें मेजर बर्टन व उसके पुत्रों की हत्या महाराव के आदेश से करने एवं लाला जयदयाल को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त करने की बातों का उल्लेख था।

जनवरी, 1858 में करौली के राजा मदन पाल ने रामसिंह-II को विद्रोहियों से मुक्त कराया।

किन्तु कोटा शहर को क्रांतिकारियों से मुक्त कराना अभी शेष था। 22 मार्च, 1858 को जनरल राबर्ट्स के नेतृत्व में एक सेना ने कोटा शहर को विद्रोहियों से मुक्त करवाया।

जयदयाल व मेहराब खान को मत्युदण्ड दिया गया।

रामसिंह-II को दण्डित किया गया तथा उसकी तोपों की सलामी घटाक 15 से 11 कर दी गई।

टोंक

टोंक का नवाब वजीरुद्दौला अंग्रेज समर्थक था। लेकिन टोंक की जनता एवं सेना की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। सेना का एक बड़ा भाग विद्रोहियों से मिल गया तथा इन सैनिकों ने नीमच के सैनिकों के साथ नवाब के किले को घेर लिया। सैनिकों ने नवाब से अपना वेतन वसूल किया और नीमच की सेना के साथ दिल्ली चले गए।

नवाब के मामा मीर आलम खाँ ने विद्रोहियों का साथ दिया। 1858 ई. के प्रारम्भ में तात्या टोपे के टोंक पहुँचने पर जनता ने तात्या को सहयोग दिया एवं टोंक का जागीरदार नासिर मुहम्मद खाँ ने भी तात्या का साथ दिया, जबकि नवाब ने अपने-आपको किले में बन्द कर लिया।

ताराचन्द पटेल ने निम्बाहेड़ा में कर्नल जेक्सन की सेना का सामना किया। कर्नल जैक्सन नीमच के विद्रोहियों का पीछा कर रहा था।

टोंक के विद्रोह में महिलाओं ने भी भाग लिया था।

धौलपुर

धौलपुर महाराजा भगवन्त सिंह अंग्रेजों का पक्षधर था। अक्टूबर, 1857 में ग्वालियर तथा इंदौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने धौलपुर में प्रवेश किया। धौलपुर राज्य की सेना तथा अधिकारी क्रांतिकारियों से मिल गये। विद्रोहियों ने दो महीने तक राज्य पर अपना अधिकार बनाये रखा। दिसम्बर, 1857 में पटियाला की सेना ने धौलपुर से क्रांतिकारियों को भगा दिया।

भरतपुर

1857 में भरतपुर पर पोलिटिकल एजेन्ट का शासन था। अतः भरतपुर की सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजी गयी। परन्तु भरतपुर की मेव व गुर्जर जनता ने क्रांतिकारियों का साथ दिया।

अलवर

अलवर के दीवान फैजुल्ला खाँ की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महाराजा न्नेसिंह ने अंग्रेजों की सहायतार्थ आगरा सेना भेजी। अलवर राज्य की गुर्जर जनता की सहानुभूति भी क्रांतिकारियों के साथ थी।

बीकानेर

बीकानेर महाराज सरदारसिंह राजस्थान का अकेला ऐसा शासक था जो सेना लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए राज्य से बाहर (हिसार के पास बडालु) भी गया। महाराजा ने पंजाब में विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का सहयोग किया। महाराजा ने अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। अग्रेजों ने बीकानेर के सरदार सिंह को टिब्बी क्षेत्र (हनुमानगढ़) के 41 गांव दिए

जयपुर

यहाँ विलायत खाँ, सादुल खाँउस्मान खाँ ने अंग्रेज रोधी कार्य किए। किन्तु शासक रामसिंह ने अंग्रेजों की तन-मन-धन से सहायता की, अंग्रेजों ने इन्हें सितार-ए-हिन्द की उपाधि व कोटपूतली की जागीर दी। जयपुर राजस्थान की एकमात्र ऐसी रियासत थी, जिसकी जनता व राजा दोनों ने मिलकर अंग्रेजों का साथ दिया।

तथ्य

विद्रोह में राजाओं के सहयोग के बारे में लार्ड कैनिंग ने कहा “इन्होंने तूफान में तरंग अवरोध का कार्य किया, नहीं तो हमारी किश्ती बह जाती”।

विद्रोह के बारे में जॉन लारेन्स ने कहा कि “यदि विद्रोहियों में एक भी योग्य नेता रहा होता तो हम सदा के लिए हार जाते”। अर्थात् विद्रोह में एक भी योग्य नेता नहीं था जो इसका सफलतापूर्वक संचालन कर सकता था। क्रांतिकारियों में रणनीति व कूटनीति में दक्ष सेनानायकों का अभाव था।

नसिराबाद छावनी के एक सैनिक अधिकारी कैप्टन प्रिचार्ड ने अपनी पुस्तक ‘प्यूटिनीज इन राजपूताना’ में इसे सैनिक विद्रोह माना हैं।

राजस्थान में 1857 की क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से व अंत सीकर से हुआ।

प्रमुख क्रांतिकारी

डूंगजी-जवारजी, सीकर

1857 ई. के स्वतत्रता संग्राम में सीकर क्षेत्र के काका-भतीजा डूंगजी-जवारजी प्रसिद्ध देश भक्त हुए।

डूंगजी शेखावाटी ब्रिगेड में रिसालेदार थे। बाद में वे नौकरी छोड़कर धनी लोगों से देश की आजादी के लिये धन मांगने लगे और धन नहीं मिलने पर उनके यहाँ डाका डालने लगे। इस धन से वे निर्धन व्यक्तियों की भी सहायता करते। इन दोनों ने अपने साथियों की सहायता से कई बार अंग्रेज छावनियों को भी लूटा।

अमर चन्द्र बांठिया

मूल रूप से बीकानेर के थे।

1857 की क्रान्ति में ग्वालियर में झांसी की रानी की वित्तीय सहायता की थी।

इन्हें ‘1857 की क्रान्ति का भामाशाह’ कहा जाता है।

राजस्थान के प्रथम शहीद थे जिन्हें 1857 की क्रान्ति में फाँसी की सजा दी गई।

तात्या टोपे

तात्या टोये 2 बार राजस्थान आया था

सबसे पहले भीलवाड़ा के माण्डलगढ़ आया था।

टोक के नासिर मुहम्मद खाँ ने तांत्याटोपे का साथ दिया

कुआड़ा के युद्ध में तात्या टोपे राबर्ट्स से हार गया। तात्या हारकर बूँदी गया, यहाँ के शासक रामसिंह ने दरवाजे बन्द कर लिए।

इसके बाद नाथद्वारा चला गया श्रीनाथ जी के दर्शन किये इसके बाद आकोला, चित्तौड़, सिंगोली, बाँसवाड़ा होते हुए झालावाड़ पहुँचा झालावाड़ के पृथ्वी सिंह को हराकर इस पर अधिकार कर लिया ब्रिगेडियर पार्क तात्या का पीछा कर रहा था।

इसके बाद तात्या छोटा उदयपुर चला गया।

दूसरी बार तात्या ने राजस्थान में 11 सितम्बर को बाँसवाड़ा से प्रवेश किया। बाँसवाड़ा शासक लक्ष्मण सिंह को पराजित कर इस पर अधिकार कर लिया।

इसके बाद सलूम्बर भींडर फिर टोंक पहुँचा, टोंक के नासीर मौहम्मद ने तात्या का सहयोग किया।

21 जनवरी को तात्या सीकर पहुँचा, मण्डावा के आनन्दसिंह ने तात्या का सहयोग किया। नरवर के सामन्त मानसिंह ने धोखे से तात्या को नरवर के जंगलों में पकड़वा दिया। न्यायाधीश बाग ने तात्या को 8 अप्रैल को फाँसी की सजा सुनाई। शिवपुरी, शिप्री मध्यप्रदेश में 18 अप्रैल, 1859 ई. को तात्या को फांसी दी गई। तात्या राजस्थान में जैसलमेर को छोड़कर प्रत्येक रियासत में घूमा था।

सीकर के सामन्त को तात्या टोये को शरण देने के आरोप में फांसी दी गई।

सीकर में तात्या टोपे की छतरी है।

तथ्य

कैप्टन शावर्स ने तात्या की फाँसी के विरोध में कहा था “तात्या पर देशद्रोह का आरोप लगाना कहाँ तक सही है इतिहास में तात्या को फांसी देना अपराध समझा जाएगा, आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि इस सजा के लिए किसने स्वीकृति दी व किसने पुष्टि की।

सुजा कँवर राजपुरोहित, लाडनूं (डीडवाना - कुचामन)

1857 की क्रान्ति के समय एकमात्र महिला क्रान्तिकारी जिसने पुरुष वेश में अंग्रेजों का मुकाबला किया और लाडनूँ क्षेत्र से अंग्रेजों को भागने पर मजबूर किया।

1857 की क्रान्ति में राजस्थानी साहित्यकारों का योगदान

1857 की क्रान्ति के समय यहाँ के कवियों व साहित्यकारों ने समाज के सभी वर्गों में अपनी लेखनी, गीतों के माध्यम से जनजागृति लाकर नूतन संचार किया।

बांकीदास

जोधपुर महाराजा मानसिंह राठौड़ के दरबारी कवि थे। इन्हें मारवाड़ का बीरबल कहा जाता है। इन्होंने ‘आयो अंग्रेज मुलक रै ऊपर’ कविता लिखी थी। भरतपुर पर अंग्रेज लेक के आक्रमण के समय 1805 ई. में इन्होंने लिखा था कि -

“हट जा रै गोरा राज भरतपुर को आठ फिरंगी नौ गोरा, लड़ें जाट के दो छोरा।”

सूर्यमल्ल मिश्रण

बूंदी के महाराजा रामसिंह द्वितीय के दरबारी कवि थे। इन्होंने डींगल भाषा में ‘वीर सतसई’ (288 दोहे) नामक ग्रन्थ 1857 की क्रान्ति के समय लिखा।

क्रान्ति के समय मातृभूमि की रक्षा करने के लिए क्रान्तिकारियों को प्रेरित करने वाला इनका दोहा आज भी प्रसिद्ध है।

इला न देणी आपणी, हालरियां हुलराय।
पूत सिखावै पालणै, मरण बड़ाई मांय ।।

1857 की क्रान्ति के राजस्थान में प्रभाव

क्रान्ति में राजाओं ने अंग्रेंजो का साथ दिया इसलिए क्रान्ति के बाद उन्हें सम्मानित किया गया तथा इनके साथ सहयोग की नीति अपनाई गई।

शासकों को संतुष्ट करने हेतु ‘गोद निषेध’ का सिद्धान्त समाप्त कर दिया गया।

सामन्तों ने क्रान्ति में विद्रोहियों का साथ दिया था इसलिए क्रान्ति के बाद उन्हें प्रभावहीन किया गया।

क्रान्ति में वैश्यवर्ग (अमीर वर्ग) ने अंग्रेंजो का साथ दिया इसलिए क्रान्ति के बाद उन्हें संरक्षण दिया गया।

राजस्थानमें यातायात व संचार के साधनों का विकास किया गया।

राजा महाराजा तथा सामन्तों के पुत्र-पुतियों के लिए शिक्षा की अलग व्यंवस्था की गई ताकि जनता से उनका सम्पर्क समाप्त किया जा सके।

राजस्थान की जनता विद्रोह में शामिल हो गई थी तथा इसाने यह सिद्ध हो गया की राजस्थान की जनता अंग्रेंजो की समर्थक नहीं है।

1857 की क्रान्ति ने आगामी राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रेरणा स्त्रोत का कार्य किया तथा कुशालसिंह चाम्पाव्त हमारे लोक गीत तथा लोक कहानियों का नायक बन गया।

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