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आभूषण

आभूषण सौन्दर्य को बढ़ाने का काम करते हैं। हर मनुष्य सुंदर दिखना चहता है, और राजस्थान के निवासी भी इस मामले में पीछे नहीं है। कालीबंगा तथा आहड़ सभ्यता के युग की स्रियाँ मृणमय तथा चमकीले पत्थरों की मणियों के आभूषण पहनती थीं। कुछ शुंगकालीन मिट्टी के खिलौनों तथा फलकों से पता चलता है कि स्रियाँ हाथों में चूड़ियाँ व कड़े, पैरों में खड़वे और गले में लटकने वाले हार पहनती थीं। स्रियाँ सोने, चाँदी, मोती और रत्न के आभूषणों में रुचि रखती थीं। साधारण स्तर की स्रियाँ काँसे, पीतल, ताँबा, कौड़ी, सीप अथवा मूँगे के गहनों से ही सन्तोष कर लेती थीं। हाथी दाँत से बने गहनों का भी उपयोग होता था। हमारे युग में भी आदिवासी व घुमक्कड़ जाति की स्रियां इस प्रकार के आभूषण पहनती हैं। पाँव में तो पीतल की पिंजणियाँ एडी से लगाकर घुटने के नीचे तक आदिवासी क्षेत्र में देखी जाती हैं। समरादित्य कथा, कुवलयमाला आदि साहित्यिक ग्रन्थों में सिर पर बाँधे जाने वाले आभूषणों को चूड़ारत्न और गले और छाती पर लटकने वाले आभूषणों को दूसूरुल्लक, पत्रलता, मणीश्ना, कंठिका, आमुक्तावली आदि कहा गया है। फ्यूमश्रीचरय् में वर्णित है कि पद्मश्री को जब विवाह के लिए सजाया गया तो पाँवों में नूपुर, कानों में कुंडल और सिर पर मुकुट से सजाया गया था। प्रसिद्ध सरस्वती की मूर्ती जो दिल्ली म्यूजियम में तथा बीकानेर में हैं ; ऊपर वर्णित आभूषणों से अलंकृत है। इनके अतिरिक्त वह दो व चार लड़ी की हार, जिन्हें राजस्थान में हँसला कहते हैं तथा बाजूबंद, कर्णकुंडल, कर्धनी (कंदोरा) अंगूलयिका, मेखला, केयूर आदि विविध आभूषणों से सुशोभित है। इन आभूषणों का अंकन राजस्थान की पूर्व मध्यकालीन मूर्तिकला में खूब देखने को मिलता है।

मध्यकाल से 20वीं सदी तक आकर अलंकारों के विविध रुप विकसित हो गये। समकालीन साहित्य, मूर्ति और चित्रकला में स्रियों के आभूषणों का सुन्दर चित्रण हुआ है। ओसियाँ, नागदा, देलवाड़ा, कुम्भलगढ़ आदि स्थानों की मूर्तियों में कुंडल, हार, बाजूबन्ध, कंकण, नुपूर, मुद्रिका के अनेक रुप तथा आकार निर्धारित हैं। विशलेषण करने पर एक - एक आभूषण की पच्चीसों डिजाइनें मिलेंगी। आर्ष रामायण, सूरजप्रकाश, कल्पसूत्र आदि चित्रित ग्रन्थों में भी इनके विविध रुपों का प्रतिपादन हुआ है। ज्यों - ज्यों समय आगे बढ़ता है, इन आभूषणों के रुप और नाम भी स्थानीय विशेषता ले लेते हैं। सिर में बाँधे जानेवाले जेवर को बोर, शीशफूल ,रखड़ी और टिकड़ा नाम पुरालेखों में अंकित हैं। उन्हीं में गले तथा छाती के जेवरों में तुलसी, बजट्टी, हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत, चन्द्रहार, कंठमाला, हाँकर, चंपकली, हंसहार, सरी, कंठी, झालरों के तोल और मूल्यों का लेखा है। ये आभूषण सोने, चाँदी, मोती के बनते थे और अनेक रत्नजड़ित होते थे। कानों के आभूषणों में कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूलझुमका, तथा अंगोट्या, झेला, लटकन आदि होते थे। हाथों में कड़ा, कंकण, गरी, चाँट, गजरा, चूड़ी तथा उंगलियों में बींटी, दामणा, हथपान, छड़ा, वींछिया तथा पैरों में कड़ा, लंगर पायल, पायजेब, नूपुर, घुँघरु झाँझर, नेवरी आदि पहने जाते थे। नाक को नथ, वारी, काँटा, चूनी, चोप आदि से सुसज्जित किया जाता था। कमर में कंदोरा और कर्धनी का प्रयोग होता था। जूड़े में बहुमूल्य रत्न या चाँदी - सोने की घूँघरियाँ लटकाई जाती थीं।

इन सभी आभूषणों को साधारण स्तर की स्रियाँ भी पहनती थीं, केवल अंतर था तो धातु का। इनकी विविधता शिल्प की दरबारी प्रभाव का परिणाम था। मुगल -सम्पर्क से आभूषणों में विलक्षणता का प्रवेश स्वाभाविक था। अलंकारों का बाहुल्य उस समय की कला की उत्कृष्ट स्थिती एवं उस समय के समाज की सौन्दर्य रुचि पर प्रकाश डालता है और आर्थिक वैभव का परिज्ञान उनके द्वारा होता है। आज भी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में आभूषणों के प्रति प्रेम है जिसके कारण इनके शिल्पी सर्वत्र फैले हुए हैं। इसी वर्ग के शिल्पी रत्नों के जड़ने तथा बारीकी का काम करने में नगरों में पाये जाते हैं। एक प्रकार से राजस्थान की भौतिक संस्कृति को आभूषणों के निर्माण- क्रम और वैविद्धय द्वारा आँका जा सकता है।

राजस्थान के कुछ नगर अपनी विशिष्ट आभूष्ण निर्माण शैली के लिए भी विख्यात हैं। श्रीनाथ जी की नगरी नाथद्वारा अपने चांदी के आभूषणों के लिए विख्यात है। इन्हें धातु के बारीक तारों से बनाया जाता है और तारकशी के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार प्रतापगढ़ की थेवा कला जिसमें कांच के बीच सोने का बारीक काम किया जाता है, पूरे देश में अपनी अलग पहचान रखती है। वहीं जयपुर अपनी कुन्दन कला के लिए प्रसिद्ध है, इसमें स्वर्ण आभूषणों पर रत्न जड़ाई की जाती है। जयपुर व अलवर अपनी कोफ्तगिरी के लिए भी प्रसिद्ध है। इस कला में फौलाद की वस्तुओं पर सोने के तार की जड़ाई की जाती है। जयपुर का प्रमुख बाजार जौहरी बाजार है और यहां की सबसे प्रमुख चौपड़ का नाम माणक चौक है।

स्त्रियों के आभूषण

सिर के आभूषण - चूड़ारत्न, मुकुट, बोर, शीशफूल ,रखड़ी और टिकड़ा,मेमंद, टीडीभलको

जूड़े में बहुमूल्य रत्न या चाँदी - सोने की घूँघरियाँ, गोफड़ बालों बेणी में गूंथा जाता है। 

कान के आभूषण - कुंडल , कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूलझुमका, तथा अंगोट्या, झेला, लटकन, सुरलिया 

नाक के आभूषण - नथ, वारी, काँटा, चूनी, चोप, बेसरि

दांत के आभूषण - रखन, चूप

गले  के आभूषण - हार , दूसूरुल्लक, पत्रलता, मणीश्ना, कंठिका, आमुक्तावली, तुलसी, टूस्सी, बजट्टी, हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत, चन्द्रहार, कंठमाला, हाँकर, चंपकली, हंसहार, सरी, कंठी, झालर, मादलिया, आड़, गले में बांधे जाने वाली देवताओं की प्रतिमा को नावा व चौकी कहते हैं

हाथ  के आभूषण - कड़ा, कंकण, गोखरू, नोगरी, बंगडी, आंवळा, चाँट, गजरा, चूड़ी, बाजूबंद, टड्डा,अणत, केयूर, खांच

उंगलियों के आभूषण - बींटी, मुंदडी, दामणा, हथपान, छड़ा, वींछिया, अरसी

 कमर के आभूषण - कंदोरा और कर्धनी, तागडी, कणकती, मेखला, सटका - लहंगे के नेफे में अटकाकर लटकाया जाने वाला आभूषण

पैर  के आभूषण - खड़वे, पिंजणियाँ ,  कड़ा, लंगर, पायल, पायजेब, नूपुर, घुँघरु झाँझर, नेवरी, फोलरी, आंवला, तेधड़, हिरना मैन

राजस्थान में पुरूष भी कई प्रकार के आभूषण पहनते हैं। कानों में मुरकियां, लोंग, झाले, छैलकड़ी, हाथों में कड़ा जिसे आकृति के अनुसार ‘नरमुखा’ या ’नाका’ भी कहा जाता है। उंगलियों में अंगूठी आदि पहनते हैं।

वेशभूषा

वेशभूषा शरीर को ढ़कने के साथ-साथ उस क्षेत्र की संस्कृति को भी प्रदर्शित करती है। वेशभूषा किसी क्षेत्र विशेष की भौगोलिक और सामाजिक स्थित पर निर्भर करती है। जैसे ठण्ड वाले क्षेत्र में की वेशभूषा गर्म क्षेत्रों से अलग होती है। वहीं शहरी लोगों की वेशभूषा ग्रामीण लोगों से अलग होती है। राजस्थान में भी बहुत सी जातियां निवास करती है। और अलग-अलग तरह की वेशभूषा धारण करती है।

कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान में सूती वस्रों का प्रयोग मिलता है। रुई कातने के चक्र और तकली, जो उत्खनन से प्राप्त हुए हैं; इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि उस युग के लोग रुई के वस्रों का प्रयोग करते थे। बैराठ व रंगमहल में भी इसके प्रमाण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि साधारण लोग अधोवस्र (धोती) तथा उत्तरीय वस्र, जो कंधे के ऊपर से होकर दाहिने हाथ के नीचे से जाता था, प्रयुक्त करते थे। यहाँ के खिलौनों को देखने से पता चलता है कि छोटे बच्चे प्राय: नग्न रहते थे। जंगली जातियाँ बहुत कम वस्रों का प्रयोग करती थीं। वे ठंड से बचने के लिए पशुओं के चर्म का प्रयोग करते थे। इसी का उपयोग साधुओं के लिए भी होता था। इन वस्रों के उपयोग की यह सारी परिपाटी आज भी राजस्थान के प्रत्येक गाँव में देखी जा सकती है जहाँ बहुधा धोती व ऊपर ओढ़ने के "पछेवड़े" के सिवाय अन्य वस्रों का प्रयोग कम किया जाता है। सर्दी में अंगरखी का पहनना भी प्राचीन परम्परा के अनुकूल है जिसमें कपड़े के बटन व आगे से बंद करने की "कसें" होती हैं जो बंधन का सीधा - सादा ढ़ंग है।

गुप्तोत्तर काल की कल्याणपुर की मूर्तियाँ तथा चित्तौड़ के कीर्तीस्तम्भ की मूर्तियाँ वेश - भूषा में अनेक परिवर्तन की कहानी प्रस्तुत करती हैं। पुरुषों में छपे हुए तथा काम वाले वस्रों को पहनने का चाव था। सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी पल्लों को लटका कर पहनी जाती थी। धोती घुटने तक और अंगरखी जाँधों तक होती थी। मूर्तियों में ऊनी वस्रों की मोटाई से एवं बारीक कपड़ो को तथा रेशमी वस्रों को बारीकि से बतलाया गया है। विवध व्यवसाय करने वालों के पहनावों में भेद भी था, जैसे शिकारी केवल धोती पहने हुए हैं तो किसान व श्रमिक केवल लंगोटी के ढ़ंग की ऊँची बाँधवाली धोती और चादर काम में लाते थे। व्यापारियों में धोती, लंबा अंगरखा, पहनने का रिवाज था। सैनिक जाँघिया या छोटी धोती, छोटी पगड़ी और कमरबन्द का प्रयोग करते थे। मल्ल केवल कच्छा पहनते थे तो सन्यासी उत्तरीय और कौपीन।

तब स्रियों के परिधानों में डिजायन एवं भड़कीलापन अधिक था। स्रियों के परिधानों के लिए प्रचलित कपड़ों में जामदानी, किमखाब, टसर, छींट मलमल, मखमल, पारचा, मसरु, चिक, इलायची, महमूदी चिक, मीर - ए - बादला, नौरंगशाही, बहादुरशाही, फरुखशाही छींट, बाफ्टा, मोमजामा, गंगाजली, आदि प्रमुख थे। च्चवर्गीय स्रियाँ अपने चयन में इन कपड़ों को वरीयता देती थीं, परन्तु साधारण वर्ग की स्रियाँ लट्ठे व छींट के वस्रों से ही संतोष कर लेती थीं।

पगड़ी

पगड़ी प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठा प्रतिक माना जाता है।

पगडी मेवाड़ की प्रसिद्ध है।

पगड़ी को पाग, पेंचा व बागा भी कहते है।

विवाह पर पहनी जाने वाली पगड़ी मोठडा पगडी कहलाती है।

श्रावण मास में पहनी जाने वाली पगड़ी लहरिया कहलाती है।

जयपुर की लहरिया पगड़ी को राजशाही पगड़ी कहते हैं।

दशहरे के अवसर पर पहने जाने वाली पगड़ी मदील कहलाती है।

दीपावली के अवसर पर पहने जाने वाली पगड़ी केसरिया कहलाती हैं

फूल पती की छपाई वाली पगडी होली, के अवसर पर पहनी जाती है।

सुनार आँटे वाली पगड़ी पहनते थे तो बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी काम में लाते थे।

विश्व की सबसे बड़ी पगड़ी बागौर संग्रहालय (उदयपुर) में रखी हुई है।

पगड़ी बांधना एक कला है। मेवाड़ में पगड़ी बांधने वाले को छाबदार कहते है। जयपुर के आखिरी खास बंधेरा (पगड़ी बांधने वाला) सूरज बख्श को जागीर प्रदान की गई थी।

तुर्रे, सरपेच, धुगधुगी का प्रयोग पगड़ियों में होता है।

पगड़ी पर एक पृथक फीता बांधा जाता था, जिसके सादा होने पर ‘उतरणी’ और सोने-चांदी का काम होने पर ‘बालाबंदी’ कहते थे।

दातिया - यह संकरा कपड़ा ठोड़ी के ऊपर से होता हुआ पगड़ी में बांधा जाता है। यह दाढ़ी को भली प्रकार से रखने के लिए प्रयोग में लाया जाता था।

राजस्थान में साफा जोधपुर जिले का प्रसिद्ध है।

कहा जा सकता है कि वर्तमान रूप में प्रचलित जोधपुरी साफा महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय के शासनकाल से प्रचलित हुआ था।

जोधपुरी कोट पेन्ट को राष्ट्रीय पौशाक का दर्जा दिया गया है।

रियासती पगडि़यां

1 जसवंत शाही 2 चुड़ावत शाही 3 भीम शाही 4 उदयशाही 5 मानशाही 6 राठौडी 7 हम्मीर -शाही 8 अमरशाही 9 स्वरूपशाही 10 शाहजहांनी 11 राजशाही

अंगरखी

शरीर के ऊपरी भाग में पहने जाने वाला वस्त्र है।

अन्य नाम - बुगतरी, अचकन, बण्डी, तनसुख, दुतई, गाबा, गदर, मिरजाई, डोढी, कानो, डगला आदि।

चौगा

सम्पन्न वर्ग द्वारा अगरखी के ऊपर पहने जाने वाला वस्त्र है।

तनजेब व जामदानी के चौगे- गर्मियों में पहने जाते है।

जामा

शादी- विवाह या युद्ध जैसे विशेष अवसरों पर घुटनों तक जो वस्त्र पहना जाता था जामा कहलाता है।

आत्मसुख

सर्दी से बचाव के लिए अंगरखी पर पहना जाने वाला वस्त्र है।

सबसे पुराना आत्मसुख सिटी पैलेस (जयपुर) में सुरक्षित है।

पटका

जामा के ऊपर पटका/कमरबंद/कटिबन्ध बांधने की प्रथा थी, जिस पर तलवार या कटार लटकाई जाती थी।

ब्रीचेस/बिरजस

इसका प्रचलन ब्रिटिश प्रभाव के कारण हुआ। यह पैरों से घुटने तक टाईट(तंग) होता था तथा घुटनों से कमर तक घेरदार चौड़ा होता था। इसके ऊपर ऊनी लेदर के टुकड़ों युक्त कोट तथा सिर पर मोटी हैट होती थी।

पछेवड़े या घुघी

ग्रामीण लोग खेतों में काम करते समय ओढ़ते हैं। इसके अलावा भाखला, कामली, चादरा, खोल्क, खेस, शाल, पामड़ी आदि सर्दी में ओढ़े जाने वाले वस्त्र हैं।

ओढ़नी

शरीर के निचले हिस्से मे घाघरा ओर ऊपर कूर्ती, कांचली के बाद स्त्रियां ओढली ओढ़ती है।

पवरी - दुल्हन की ओढ़नी को कहते हैं। कंवरजोड़ - मामा द्वारा विवाह के अवसर पर अपनी भांजी के लिए लायी गई ओढ़नी।

पोमचा- पीली व गुलाबी जमीन वाली विशेष ओढनी बच्चे के जन्म के समय महिलाएं ओढती है।

लहरिया - तीज-त्यौहार के अवसर पर महिलाओं पहने जाने वाली ओढनी है।

समुद्र लहर लहरिया जयपुर में रंगा जाता है।

लहरिये की आड़ी धारियों को खंजरीनुमा रंगने पे गंडादार कहा जाता है।

लहरियें की धारियां जब एक दुसरे को काटती हुवी बनायीं जाती है तो वह मोठडा कहलाती है।

दामणी : मारवाड़ में स्त्रियाँ द्वारा एक विशेष प्रकार की लालरंग की ओढ़नी जिस पर धागों की कसीदाकारी की जाती है|

चीड़ का पोमचा – हाडौती क्षेत्र में विधवा स्त्री द्वारा पहने जाने वाली काले रंग की ओढ़नी।

कुर्ती

कापड़ी - कपडे के 2 टुकड़ो को जोड़ कर बनायीं गयी चोली जो पीठ पर तनियों से बाँधी जाती है।

कुर्ती-कांचली - स्त्रियों द्वारा शरीर के उपरी हिस्से हिस्से में पहने जाने वाले वस्त्र को कुर्ती-कांचली कहा जाता है। बिना बाँह वाली चोली आंगी कहलाती है।

तिलका - मुसलमान स्त्रियां चूड़ीदार पाजामें पर तिलका नामक एक चोगा-सा पहनती हैं और ऊपर से ओढ़नी ओढ़ लेती हैं।

साड़ी

साड़ियों के नाम - चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक, वसन, चीर - पटोरी, चोरसो, ओड़नी, चूँदड़ी, धोरीवाला, साड़ी आदि

फड़का - मराठी अंदाज में पहनी गयी साड़ी।

जाम साई - आदिवासी महिलाओं की साड़ी को जाम साई कहते है।

कोटा डोरिया साड़ी ने कोटा को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई है।

नकली कोटा डोरिया पर अंकुश लगाने के लिए 1999-2000 में केन्द्रीय कानून भौगोलिक चिह्नीकरण अधिनियम के अन्तर्गत कोटा डोरिया का पेंटेट करवाया गया। इस कानून के तहत कोटा डोरिया के नाम से नकली उत्पाद बेचना अपराध है।

सूंठ की साड़ियों के लिए सवाईमाधोपुर प्रसिद्ध है।

आदिवासियों में

पोतिया

पगड़ी के स्थान पर बांधा जाने वाला वस्त्र ‘पोतिया’ कहलाता है।

साफा - खपटा

सलूका

सहरिया पुरूषों की अंगरखी - सलूका

10.धोती

ठेपाड़ा / ढेपाडा -

भील पुरूषों द्वारा पहनी जाने वाली तंग धोती है।

खोयतू - लंगोटिया भीलों में पुरूषों द्वारा कमर पर बांधे जाने वाली लंगोटी को कहते है।

सहरिया पुरूषों की धोती - पंछा

तथ्य

वस्त्रों के आधार पर भीलो को दो वर्ग लंगोटिया भील एवं पोतीद्दा भील में बांटा जाता है। लंगोटिया भील परुष खोयतु (कमर में लंगोटी) एवं भील स्त्रियाँ कछावु (घुटनों तक घाघरा) पहनती है। पोतीद्दा भील धोती बंडी (बनियान), फालु (कमर का अंगोछा) पहनते है। भील पुरुष प्रायः कुर्ता या अंगरखी तथा तंग धोती पहनते है। सिर पर पोत्या (साफा) बांधते है।

ओढ़नी

कटकी - अविवाहित बालिकाओं की ओढनी है। इसे पावली भांत की ओढ़नी भी कहते हैं।

लुंगड़ा - इसकी सफेद जमीन पर लाल रंग की बूटी निर्मित हाती है। यह विवाहित स्त्रियों की ओढ़नी है।, इसे अंगोछा साड़ी भी कहते हैं। राज्य में शेखावटी क्षेत्र में बंधेज का लूगड़ा अधिक प्रचलित है। सीकर का पाटौदा गांव लूगड़ा के लिए प्रसिद्ध है।

तारा भांत की ओढ़नी - आदिवासी स्त्रियों में लोकप्रिय।

ज्वार भांत की ओढ़नी - ज्वार के दानों जैसे छोटी – छोटी बिंदी वाली जमीन और बेल – बूटे वाले पल्लू की ओढ़नी।

लहर भांत की ओढ़नी - ज्वार भांत जैसी बिंदियों वाला लहरिया।

केरी भांत की ओढ़नी - लाल रंग की जमीन पर सफेद व पीले रंग की बिन्दियां बनी होती है।

9. सिंदूरी

भील महिलाओं द्वारा पहने जाने वाली लाल रंग की साड़ी है।

11. घाघरा

कछावू - लंगेटिया भील महिलाओं द्वारा घुटने तक पहना जाने वाला नीचा घाघरा जो प्रायः काले और लाल रंग का होता है।

रेनसाई - आदवासी स्त्रियों द्वारा पहना जाने वाला काले रंग का भूरे – लाल रंग बूटियों वाला लहंगा

नान्दगा/नादड़ा

आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त होने वाला स्त्रियों का सबसे प्राचीनतम वस्त्र नांदणा है। यह एक प्रकार का लहंगा होता है, जो नीले रंग की छींट से बनता है।

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